आदित्य तिक्कू।।
कंप्यूटर से लेकर निजी ट्रेनों तक हमने हर नयी शुरुआत का विरोध किया है। हमे विरोध करने में अलग अनुभूति होती है। हमे किसी वस्तु या विषय में जानकारी हो न हो पर विरोध करने से संतुष्टि अवश्य प्राप्त होती है। समानता का बिगुल बजाते है, पर इस बात का पूरा ख्याल रखा जाता है कि हम सामान्य लोगों से हम बुद्धिजीवी कैसे सिद्ध होंगे। बस विरोध में बोलना है।
भारत में ट्रेनों से ज्यादा बसों का उपयोग होता है। हमारे यहां 1.6 मिलियन से अधिक बसें रजिस्टर्ड हैं, और सार्वजनिक बस क्षेत्र में प्रतिदिन लगभग 70 मिलियन लोगों को ले जाने वाली 170,000 बसों का संचालन होता है। ट्रेनों में लगभग 23 मिलियन यात्री करते है। यह आंकड़े गूगल पर भी देखे जा सकते है। वह थोड़े पुराने है पर यकीन मानिये अभी भी बस का प्रयोग अधिक होता है। क्या किया जाये विरोध के नाम पर या निजीकरण के नाम पर सरकारी बस के अलावा सब बंद कर दीजिये?
निजीकरण को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते यह कटु सत्य है। हाल ही में भारतीय रेल ने 109 जोड़ी रूटों पर 151 निजी ट्रेनों को चलाने की घोषणा की है। रेल मंत्री पीयूष गोयल और रेलवे बोर्ड के अध्यक्ष विनोद यादव कह रहे हैं कि इस पहल से रेलवे में 30 हजार करोड़ का निवेश होगा। यह रेलवे का निजीकरण नहीं, बल्कि भागीदारी है। वर्ष 2023 तक जब ये ट्रेनें चलने लगेंगी तो अवलोकन बदला होगा। इन ट्रेनों के परिचालन से सभी यात्रियों को कंफर्म टिकट मिलने लगेगा और सुविधाओं का विस्तार होगा। प्रस्तावित निजी ट्रेनों के रखरखाव के साथ वित्तीय व्यवस्था व संचालन उनका ही जिम्मा होगा। भारतीय रेल के मानकों और दिशा-निर्देशों का पालन भी उनको करना होगा। मौजूदा 2,800 मेल-एक्सप्रेस ट्रेनों की केवल पांच फीसदी हिस्सेदारी निजी क्षेत्र के हवाले होगी।
इन ट्रेनों का लोको पायलट और गार्ड रेलवे का ही होगा और सेफ्टी क्लियरेंस आदि भी रेलवे के माध्यम से होगा। इनकी गति भी 160 कि.मी प्रति घंटा होगी। दावे बहुत से हो रहे हैं, लेकिन यह बात रेलवे के नीति-निर्माताओं को भी पता है कि निजी ट्रेनों के चलने से अधिक सुविधा संपन्न लोगों के हिस्से में भले अधिक धन व्यय करके अच्छी सुविधा मिल जाए, पर आम मुसाफिरों की न तो दुनिया बदलने वाली है, ना ही रेलवे का कायाकल्प कुछ बदलने वाला है।
याद हो तो वर्ष 2019-20 के बजट भाषण में वित्त मंत्री ने ट्रैक बनाने से लेकर, रोलिंग स्टॉक और यात्री व माल भाड़ा सेवा में पीपीपी का प्रस्ताव किया था। वर्ष 2020-21 के बजट में वे सारी बातें कही गई हैं जो अब हो रही हैं। 17 मार्च को राज्यसभा में सांसदों ने रेलवे के निजीकरण के प्रयासों का विरोध किया था। रेल मंत्री पीयूष गोयल ने इस आधार पर निजी निवेश की वकालत भी की थी कि हम रेलवे को विश्वस्तरीय बनाना चाहते हैं। 12 वर्षो में पीपीपी के जरिये 50 लाख करोड़ का निवेश होगा, लेकिन रेलवे के निजीकरण का कोई प्रस्ताव नहीं है।
वास्तविकता यह है कि ये सारे कदम रेलवे को नीति आयोग के आगे विवश होकर उठाने पड़ रहे हैं। वह छह हवाई अड्डों के अनुभव के आधार पर रेलवे के साथ प्रयोग को आगे बढ़ाना चाहता था। इसके लिए सचिवों की एक समिति भी बनी थी। इसके तहत ट्रेनों का संचालन ही नहीं, स्टेशनों का विकास भी प्राइवेट कंपनियों के हवाले किया जाना है। स्टेशन पुनर्विकास कार्यक्रम के तहत निजी पार्टियों को भूमि और इस पर बनी संरचनाओं के उपयोग के लिए एक निर्धारित अवधि के लिए लीज अधिकार मिलेंगे। लेकिन इधर ऑल इंडिया रेलवे मेन्स फेडरेशन ने निजी रेलगाड़ी चलाने पर आपत्ति जताई है और कहा है कि जब रेल कर्मचारी कोरोना और प्रतिकूल हालात में भी ट्रेनों का संचालन करने में सक्षम हैं तो प्राइवेट ऑपरेटरों को आमंत्रित करने का क्या मतलब है।
आज भारतीय रेल का नेटवर्क करीब 68 हजार कि.मी हो चुका है। लेकिन इसके 34 हजार प्रति कि.मी नेटवर्क पर सबसे अधिक दबाव है जो 96 फीसदी यात्री और माल यातायात ढो रहा है। इसमें से भी 11 हजार प्रति कि.मी का नेटवर्क 60 फीसदी यातायात संभाल रहा है। इनकी स्थिति में सुधार की संभावना दिसंबर 2021 तक होगी जब डेडीकेटेड फ्रेट कॉरिडोर बन जाएगा। फ्रेट कॉरिडोर से सबसे अधिक दबाव वाले बड़े हिस्से की तस्वीर बदल जाएगी। फिलहाल अभी तो माल और यात्री गाड़ियां एक ही ट्रैक पर चल रही हैं। ऐसा होने पर सबसे बोझ वाला नेटवर्क मार्च 2025 तक 160 कि.मी प्रति की गति वाली गाड़ियां संभालने में सक्षम हो जाएगा। रेलवे ने बेशक इनको सबसे प्राथमिकता वाली सूची में शामिल किया है, लेकिन सारा दारोमदार संसाधनों की उपलब्धता पर निर्भर है।
उदारीकरण के बाद निजी निवेश के रेलवे के प्रयासों में कभी यात्री ट्रेनों का संचालन शामिल नहीं रहा। वर्ष 1992 में ऑन योर वैगन स्कीम शुरू की गई जिससे सालाना 500 करोड़ रुपये निवेश की उम्मीद थी, लेकिन 40 करोड़ रुपए से कम निवेश हुआ। कई दूसरे मॉडल से जो धन आया वह रेलवे जैसे संगठन के लिए ऊंट के मुंह में जीरा से अधिक नहीं था। उदारीकरण के बाद बहुत कुछ बदला, लेकिन रेल और डाक क्षेत्र में सरकारी एकाधिकार कायम रहा, क्योंकि निजी क्षेत्र के मामले में जो नीति बंदरगाहों, दूरसंचार, विद्युत, सड़क और हवाई अड्डों के मामलों में सफल रही, वह रेलवे के मामले में विफल साबित हुई।
फिर भी पहले योजना आयोग और बाद में नीति आयोग पीपीपी के लिए दबाव बनाता रहा। भारतीय रेल ने चर्चगेट-विरार मुंबई उपनगरीय रेल कॉरिडोर, मुंबई अहमदाबाद हाईस्पीड कॉरिडोर, स्टेशनों का पुनर्विकास, लॉजिस्टिक पार्क और निजी माल टर्मिनल, बंदरगाह कनेक्टिविटी और डेडिकेटेड फ्रंट कॉरिडोर का सोननगर-दानकुनी खंड के साथ इंजन और रेल कोच कारखाने तक आगे किए गए, लेकिन निवेश कितना आ सका? जो निजी क्षेत्र जहाज उड़ानों के साथ सड़क भी बना रहा है, वह रेल लाइन क्यों नहीं बिछा सका? इस नाते कि उसमें वह वैसी वसूली नहीं कर सकता है, जो टोल पर या ट्रेन में टिकट के मामले में कर सकता है। उसने रेलवे की खान-पान सेवाओं पर मजबूती से कब्जा जमाया। लेकिन रेल इतिहास में पहली बार सीएजी ने अपनी रिपोर्ट में यहां तक टिप्पणी कर दी कि रेलगाड़ियों में परोसा जाने वाला खाना इंसानों के खाने लायक नहीं। हालांकि तेजस जैसी ट्रेन अभी आइआरसीटीसी यानी रेलवे के ही नियंत्रण में है, इस नाते उसकी गुणवत्ता बरकरार है।
सरल व स्पष्ट है निजीकरण भारतीय रेल की आवश्यकता है यदि हमे वास्तविकता में गुणवत्ता बढ़ानी है और आबादी बढ़ रही है यात्री भी बढेंगे ही, फिर किसी और देश की ट्रेनों से तुलना न हो क्योंकि कुछ नया होगा तो समस्या भी होगी पर कुछ समय पश्चात सब सहज हो जायेगा।