आदित्य तिक्कू।।
अपराध और भ्रष्टाचार से उपजे हिस्ट्रीशीटर विकास दुबे का अंत वही हुआ जो होना चाहिए था। ऐसे अपराधी के लिए मेरे अंदर तनिक भी करुणा नहीं है। इसका अर्थ यह भी नहीं है की मस्तिष्क में सवाल भी नहीं है।
कानपुर के बिकरू गांव में बीते दिनों हुई मुठभेड़ का मुख्य आरोपी विकास दुबे को शुक्रवार सुबह कानपुर के पास ही पुलिस ने एक एनकाउंटर में मार गिराया है।दुबे को पुलिस ने गुरुवार सुबह मध्य प्रदेश के उज्जैन से पकड़ा था। वह पिछले कई दिनों से फरार चल रहा था। बिकरू गांव के कांड के बाद से ही दुबे की तलाश जारी थी और पुलिस ने उसपर पांच लाख रुपये का इनाम रखा था। उज्जैन से यूपी एसटीएफ की टीम उसे कानपुर लेकर आ रही थी। इसी दौरान शुक्रवार सुबह हादसा हो गया और दुबे घायल जवान की पिस्टल लेकर भागने लगा। पुलिस ने सरेंडर करने की अपील की, लेकिन दुबे ने फायरिंग शुरू कर दी। इसके बाद एनकाउंटर में पुलिस ने विकास दुबे को मार गिराया।
इस एनकाउंटर में कितनी सच्चाई है,यह तो जांच के बाद पता ही चलेगा, लेकिन इस बीच पुलिस एनकाउंटर का जो सामान्यीकरण, उसकी जनस्वीकार्यता और वाह वाही का जो माहौल है, वह देश की संवैधानिक व्यवस्थाओं, कानून और देश में न्याय की अवधारणाओं पर एक बार फिर वही सवाल खड़े करती है, जैसे कि हैदराबाद में बलात्कार के अपराधियों के एनकाउंटर पर हुए थे। हालांकि हैदराबाद में हुए एनकाउंटर से इसकी तुलना करना ठीक नहीं है, पर इन दोनों ही घटनाओं में यदि कोई समानता है तो वह यह है कि किसी जुर्म की सजा देने के लिए भारत की कानून और न्याय व्यवस्था का खुला उल्लंघन।
हिस्ट्रीशीटर विकास दुबे के एनकाउंटर के बाद निश्चित ही कई लोगों के नकाब उतरने से भी बच गए। देश की जनता के सामने जो भी घटनाक्रम सामने है उसके बाद उसे यह सोचना चाहिए कि यह न्याय की जीत है या अपराध की जीत है। आखिर इतने सक्षम और काबिल तंत्र के लिए एक विकास दुबे जैसे गुंडे का जीवित अवस्था में कोर्ट तक ले जाना क्या इतना ज्यादा कठिन था? क्या वास्तव में नहीं पुलिस और सरकार यह चाहती थी कि विकास दुबे नाम का यह शख्स जीवित अवस्था में कोर्ट तक जाना चाहिए और देश की कानून और न्याय व्यवस्था के जरिए उसे अपने अपराधों की कड़ी से कड़ी सजा दी जानी चाहिए।
स्थिति परिस्थिति पर चर्चा हो सकती है व होनी भी चाहिए पर इसे नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता कि इसमें सबसे बड़ा दोष भारत की उस लचर न्याय व्यवस्था का है जो सालों साल अदालतों का चक्कर लगवाती है। जब सब कुछ फास्ट और डिजिटल हो गया है, उस वक्त में भी कोर्ट में कामकाज की गति हमें बढ़ी हुई नहीं दिखाई देती है। जनता के सामने अपराधों को अंजाम देने वाले अपराधी गवाहों और सबूतों के अभाव में बरी हो जाते हैं। ऐसे में यदि सबसे ज्यादा किसी को आत्मचिंतन करने की जरूरत है तो वह भारत की न्याय व्यवस्था ही है। वह अपनी व्यवस्था को जितना जल्दी ठीक कर पाए, देश के लिए वह उतना ही अच्छा होगा, क्योंकि यदि ऐसा हुआ तो फिर देश का जनमानस पुलिस के किसी ऐसे कथित एनकाउंटर का सवाल नहीं, उस पर स्वागत खड़े करेगा।
आदर्श व्यवस्था के ख़्वाब से वास्तविकता के धरताल पर आकर देखें तो यह फिलहाल दूर की कौड़ी ही लग रही है। जब हम अपनी संसद और विधानसभा में बड़ी संख्या में अपराधियों को चुनकर भेज देते हैं, ऐसे समाज में हम नैतिकता की कितनी और कैसी उम्मीद करें। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म की रिपोर्ट बताती है कि उत्तरप्रदेश में ही 45 प्रतिशत मंत्रियों ने अपने शपथ पत्रों में स्वयं पर आपराधिक मामले दर्ज होना बताया। पिछले चुनाव में 18 प्रतिशत ऐसे उम्मीदवार थे, जिन पर आपराधिक मामले दर्ज थे. इनमें तकरीबन 15 प्रतिशत ऐसे उम्मीदवार थे जिन पर हत्या, बलात्कार जैसे संगीन मामले चल रहे थे। भुनभुनाईये नहीं यह सब हमे क्या करना है या हम क्या हैं, का ही परिणाम है।
हिस्ट्रीशीटर का एनकाउंटर हो गया अच्छा हुआ, परन्तु यह मामला केवल विकास दुबे भर का नहीं है। इस देश की न्याय और कानून व्यवस्था के जरिए तमाम तरह के अपराधों का त्वरित एनकाउंटर करने की जरूरत है, वरना तो यह चंद दिनों का रियलिटी शो होकर का रह जायेगा। जिस देश में संविधान और न्याय व्यवस्था को दरकिनार कर एनकाउंटर को स्वीकार्यता मिलने लगे तो समझिये आप की ज़मीन हिलने वाली है।