आचार्य महाप्रज्ञ के 101वे जन्म दिवस पर विशेष
– मुनि कमल कुमार –
आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी का जन्म राजस्थान के थली संभाग में टमकोर गांव में पिता तोलाराम जी माता बालू देवी की कुक्षि से हुआ। टमकोर एक साधारण गांव था। जहां ना तो रेल आती थी, ना कोई सड़क, ना कोई विद्यालय। परंतु वहां के लोग जैन श्वेतांबर तेरापंथ संघ के अनुयाई थे। वहां समय-समय पर साधु साध्वियों का आना जाना होता रहता था। कई बार चोमासे भी होते थे। लोगों में साधु साध्वियों के दर्शन सेवा प्रवचन आदि की भावना रहती थी। जिससे उन्हें समय-समय पर धार्मिक संस्कार मिलते रहते। आचार्य महाप्रज्ञ जी का नाम नथमल था। छोटी अवस्था में ही आपके पिता श्रीमान तोलाराम जी का स्वर्गवास हो गया। घर की सार संभाल करने वाला कोई नहीं था। इसलिए माता बच्चों को लेकर पीहर चली गई पीहर वाले काफी संपन्न थे। नथमल जी का लालन-पालन ननिहाल में हुआ। बड़े होने पर पारिवारिक जन पुनः सब को टमकोर ले आए। वहां उस समय मुनि छबील जी का चातुर्मास था। पारिवारिक सदस्य सेवा दर्शन का पूरा लाभ लेते थे। मुनि छबील जी के सहयोगी मुनि मूलचंद जी ने बालक नथमल को कुछ तत्व ज्ञान करवाया और संसार की नश्वरता का बोध करवाया जिससे नथमल के ह्रदय में वैराग्य भावना उत्पन्न हो गई। नथमल ने माता से दीक्षा की बात कही। तब माता ने कहा जब तू दीक्षा लेगा तो मैं घर में रहकर क्या करूंगी मैं भी तुम्हारे साथ साध्वी बन जाऊंगी। मां बेटे दोनों अपने मन को पक्का बना रहे थे। संतो ने उन्हें पूज्य कालूगणी के दर्शनों की प्रेरणा दी और मां बेटे गोपीचंद जी के साथ पूज्य कालूगणी के दर्शनार्थ गंगाशहर गए। उस समय यातायात के साधनों की दिक्कत थी। गंगाशहर में पूज्य कालूगणी के प्रथम दर्शन और प्रवचन से बालक नथमल का वैराग्य और अधिक पुष्ट हो गया और पूज्य कालूगणी से दीक्षा की अर्ज की। पूज्य प्रवर ने मां बेटे की भावना पर ध्यान देते हुए साधु प्रतिक्रमण की आज्ञा प्रदान की। टमकोर पहुंचते ही संतों ने उन्हें प्रतिक्रमण आदि आवश्यक तत्वों का ज्ञान करवाया। पुज्य कालूगणी गंगाशहर के पश्चात सरदारशहर मर्यादा महोत्सव के लिए पधार रहे थे। मां बेटे ने सरदार शहर से पूर्व भादासर में गुरुदेव के दर्शन करके दीक्षा की अर्ज की। पूज्य गुरुदेव ने बालक नथमल की दीक्षा फरमा दी और माता को अनुमति नहीं मिली। नथमल के आग्रह भरे निवेदन पर ध्यान देकर माता बालू जी की दीक्षा फर्मा दी। सरदारशहर मर्यादा महोत्सव पर आपकी दीक्षा हुई। दीक्षित होते ही पूज्य प्रवर ने आपकी शिक्षा, साधु आचार आदि के प्रशिक्षण के लिए मुनि तुलसी के पास नियुक्ति की। मुनि तुलसी ने अपनी गहरी सूझबूझ से नव दीक्षित मुनि नथमल का ऐसा निर्माण किया कि, वे महाप्रज्ञ के रूप में उभर कर आए। मुनि नथमल जी की विनम्रता, सरलता, आचार निष्ठा, गुणग्राहकता, सहिष्णुता, अध्यनशीलता, कर्तव्य परायणता अद्धितिय थी। आप इन्हीं गुणों के कारण द्वितिया के चंद्रमा के समान प्रवर्घमान रहे। मुनि तुलसी जब आचार्य बन गए, तब भी आपको उनकी निकट सेवा का दुर्लभ अवसर प्राप्त होता रहा। आगम तत्व सिद्धांतों को गहराई से समझ कर आप एक अच्छे साहित्यकार, प्रवचनकार, व्याख्याकार बने। आपने हिंदी, संस्कृत, प्राकृत, राजस्थानी भाषा में जो साहित्य लिखा उसे पढ़कर पाठक गण आप की मुक्त कंठ से प्रशंसा करते हैं।
आप हिंदी, संस्कृत, प्राकृत भाषा के आशु कवि थे। आपकी प्रज्ञा के आगे सभी नतमस्तक थे। उन्होने केवल जैन और तेरापंथ के लोगों के दिलों में ही नहीं, अपितु मूर्धन्य साहित्यकार, चिंतक वैज्ञानिक, राजनेता, उद्योगपतियों के दिलों में भी गहरा स्थान बनाया। आपकी कार्यक्षमताओं को देखकर आचार्य श्री तुलसी ने अपने जीते ही अपना आचार्य पद विसर्जन कर महाप्रज्ञ जी को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया। यह तेरापंथ धर्म संघ के लिए नवीन कार्य कहा जा सकता है। आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी ने जीवन के अंतिम दिवस तक सक्रिय जीवन जिया। प्रवचन लेखन अध्यापन सब व्यवस्थित चले। आपने आचार्य श्री तुलसी के महाप्रयाण के पश्चात अपने उत्तराधिकारी की विधिवत घोषणा कर पूर्ण निश्चिंत हो गए थे। विक्रम संवत 2009 को जेठ कृष्णा एकादशी के दिन सरदार शहर में आपका महाप्रयाण हो गया। यह भी एक दुर्लभ योग ही था की सरदार शहर में ही आप ने दीक्षा ली, अग्रणी बनकर प्रथम चातुर्मास सरदारशहर में ही किया और अंतिम समय भी सरदारशहर वासियों को मिला। आप की अनेक विशेषताओं को जड़ लेखनी से लिख पाना साधारण व्यक्ति का काम नहीं है। आपके 101 में जन्मदिवस पर यही मंगल कामना करते हैं कि आप द्वारा दर्शित पथ का अनुशरण करके आचार्य महाश्रमण जी की छत्र छाया में संयम पथ पर निर्बाध गतिमान बने रहे।