कोरोना संकट के कारण अगर किसी के आगे सबसे ज्यादा गम्भीर संकट आया है तो वो है इस देश का मजदूर। उसके पास न रहने को मकान है न दो वक़्त की रोटी का जुगाड़। ऐसे संकट के समय में सभी राजनीतिक दल संवेदनहीन हो गए हैं। मजदूरों की इस दुर्दशा पर सभी एक दूसरे के ऊपर आरोप लगाकर अपनी घटिया मानसिकता का परिचय दे रहे हैं। सैंकड़ों किलोमीटर पैदल चल रहे भूखे प्यासे मजदूरों की हालत देखकर किसी का भी ह्रदय पिघल जाएगा लेकिन इन नेताओं की आंखों का पानी शायद सूख गया है। चलते-चलते पैरों में छाले पड़ गए हैं सरकारें प्रयास तो कर रही हैं लेकिन वो सिर्फ इतना जैसे ऊंट के मुहँ में जीरा। उससे राजनीतिक रोटियां तो सिक रही हैं, लेकिन उन मजदूरों का भला नहीं हो रहा। जो थक कर रेल की पटरियों पर हमेशा हमेशा के लिये सो गए। लाशों के ढेर पर राजनीति करने वाले नेता एक दूसरे के राज्य की गलती बता रहे हैं तथा मध्य प्रदेश की सरकार ने मुआवजे की घोषणा कर दी है लेकिन क्या इन पैसों से उन बच्चों के पिता को वापस लाया जा सकता है? क्या किसी के सुहाग को लौटाया जा सकता है?
अगर समय रहते सरकारें जाग गयी होतीं तो उन मजदूरों को बचाया जा सकता था। सभी प्रदेशों की सरकारें दावा कर रही हैं कि हम हर रोज लाखों गरीब मजदूरों को खाना खिला रहे हैं फिर भी मजदूर भूखा क्यों है? क्या सरकारों के दावे झूठे हैं? सच्चाई तो ये है कि इन मजदूरों को राज्य सरकारों ने भागने पर मजबूर कर दिया। इन्हें न रहने के लिये जगह मिली न खाने को रोटी। इस संकट के समय में समाजसेवियों ने जरूर अपनी सामर्थ्य के अनुसार लोगों की मदद की है। राजनीतिक दलों के प्रवक्ता तो टीवी चैनल की डिवेट में ऐसे-ऐसे तर्क देते हैं जिनका मतलब नहीं होता है। हमारे देश के नेताओं के पास इतनी दौलत है। अगर उसका कुछ हिस्सा सबने मिलकर इन मजदूरों पर खर्च कर दिया होता तो शायद देश का मजदूर इतना मजबूर न होता। चुनाव प्रचार के नाम पर करोड़ो खर्च करने वाले नेता देश पर आए इस संकट की घड़ी में अपनी जेब से कुछ खर्च कर देते तो शायद गरीबों का कुछ भला हो जाता लेकिन अफसोस है कि किसी भी दल का कोई नेता इतनी हिम्मत न जुटा सका।
कांग्रेस पार्टी अपने को गरीबों की हितेषी कहती है इस संकट काल में देश के सभी मजदूरों को कुछ आर्थिक मदद दे देती तो उनके जख्मों पर कुछ मरहम लग जाता।
भारतीय जनता पार्टी ने भी लॉकडाउन से पहले इन मजदूरों के लिये कोई ठोस योजना नहीं बनाई। अगर इनके लिये भी कुछ सोचा होता तो शायद इन्हें ये दिन न देखने पड़ते। लगभग पचास दिन बाद भी मजदूर सड़कों पर पैदल चलते दिख रहे हैं तो इसके लिये जिम्मेदार कौन है?
आखिर कोई तो इनकी सुध ले लो ये बेबस मजदूर बहुत मजबूर हैं।
देश की सभी राजनीतिक पार्टियों के लिये ये आत्ममंथन का वक़्त है। ये वक़्त तो गुजर जाएगा लेकिन मजदूरों के दिलों पर जख्मों के निशान हमेशा रहेंगे।
मजदूरों की बेबसी पर घटिया राजनीति
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