भरतकुमार सोलंकी, वित्त विशेषज्ञ।।
जब अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन में निरन्तर गिरावट हो रही हो और सकल घरेलू उत्पाद कम से कम तीन महीने डाउन ग्रोथ में हो तो इस स्थिति को विश्व आर्थिक मन्दी कहते हैं। अर्थव्यवस्था में मंदी की चर्चा शुरू हो रही है। भारत सहित दुनिया के कई देशों में आर्थिक गतिविधियों में सुस्ती के स्पष्ट संकेत दिख रहे हैं। अर्थव्यवस्था के मंदी की तरफ बढ़ने पर आर्थिक गतिविधियों में चौतरफा गिरावट आती हैं। ऐसे कई दूसरे पैमाने भी हैं, जो अर्थव्यवस्था के मंदी की तरफ बढ़ने का संकेत देते हैं। इससे पहले आर्थिक मंदी ने साल 2008-2009 में दुनिया भर में तांडव मचाया था। यह साल 1930 की मंदी के बाद सबसे बड़ा आर्थिक संकट था। यहां हम ऐसे संकेतों पर चर्चा कर रहे हैं।
आर्थिक विकास दर घटने से कंजम्प्शन में गिरावट
यदि किसी अर्थव्यवस्था की विकास दर या जीडीपी तिमाही-दर-तिमाही लगातार घट रही हैं तो इसे आर्थिक मंदी का बड़ा संकेत माना जाता हैं। किसी देश की अर्थव्यवस्था या किसी खास क्षेत्र के उत्पादन में बढ़ोत्तरी की दर को विकास दर कहा जाता है। यदि देश की विकास दर का जिक्र हो रहा हो तो इसका मतलब देश की अर्थव्यवस्था या सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) बढ़ने की रफ्तार से हैं। जीडीपी एक निर्धारित अवधि में किसी देश में बने सभी उत्पादों और सेवाओं के मूल्य का जोड़ हैं। आर्थिक मंदी का एक दूसरा बड़ा संकेत यह है कि लोग खपत यानी कंजम्प्शन कम कर देते हैं। इस दौरान बिस्कुट, तेल, साबुन, कपड़ा, धातु जैसी सामान्य चीजों के साथ-साथ घरो और वाहनो की बिक्री घट जाती हैं। दरअसल मंदी के दौरान लोग जरूरत की चीजों पर खर्च को काबू में करने का प्रयास करते हैं। कुछ जानकार वाहनों की बिक्री घटने को मंदी का शुरुआती संकेत मानते हैं। उनका तर्क हैं कि जब लोगों के पास अतिरिक्त पैसा होता है, तभी वे गाड़ी खरीदना पसंद करते हैं। यदि गाड़ियों की बिक्री कम हो रही है, इसका अर्थ है कि लोगों के पैसा कम पैसा बच रहा हैं।
औद्योगिक उत्पादन में गिरावट से बढ़ जाती बेरोजगारी
अर्थव्यवस्था में यदि उद्योग का पहिया रुकेगा तो नए उत्पाद नहीं बनेंगे। इसमें निजी सेक्टर की बड़ी भूमिका होती हैं।मंदी के दौर में उद्योगों का उत्पादन कम हो जाता। मिलों और फैक्ट्रियों पर ताले लग जाते हैं, क्योंकि बाजार में बिक्री घट जाती हैं। यदि बाजार में औद्योगिक उत्पादन कम होता है तो कई सेवाएं भी प्रभावित होती हैं। इसमें माल ढुलाई, बीमा, गोदाम, वितरण जैसी तमाम सेवाएं शामिल हैं। कई कारोबार जैसे टेलिकॉम, टूरिज्म सिर्फ सेवा आधारित हैं, मगर व्यापक रूप से बिक्री घटने पर उनका बिजनेस भी प्रभावित होता हैं। अर्थव्यवस्था में मंदी आने पर रोजगार के अवसर घट जाते हैं। उत्पादन न होने की वजह से उद्योग बंद हो जाते हैं, ढुलाई नहीं होती है, बिक्री ठप पड़ जाती हैं। इसके चलते कंपनियां कर्मचारियों की छंटनी करने लगती हैं। इससे अर्थव्यवस्था में बेरोजगारी बढ़ जाती हैं।
बचत और निवेश में कमी से कर्ज की मांग घट जाती
कमाई की रकम से खर्च निकाल दें तो लोगों के पास जो पैसा बचेगा वह बचत के लिए इस्तेमाल होगा। लोग उसका निवेश भी करते है। बैंक में रखा पैसा भी इसी दायरे में आता हैं। मंदी के दौर में निवेश कम हो जाता हैं क्योंकि लोग कम कमाते हैं।इस स्थिति में उनकी खरीदने की क्षमता घट जाती है और वे बचत भी कम कर पाते हैं। इससे अर्थव्यवस्था में पैसे का प्रवाह घट जाता हैं। लोग जब कम बचाएंगे, तो वे बैंक या निवेश के अन्य साधनों में भी कम पैसा लगाएंगे। ऐसे में बैंकों या वित्तीय संस्थानों के पास कर्ज देने के लिए पैसा घट जाएगा। अर्थव्यवस्था को मजबूती देने के लिए कर्ज की मांग और आपूर्ति, दोनों होना जरूरी हैं। इसका दूसरा पहलू है कि जब कम बिक्री के चलते उद्योग उत्पादन घटा रहे हैं, तो वे कर्ज क्यों लेंगे। कर्ज की मांग न होने पर भी कर्ज चक्र प्रभावित होगा। इसलिए कर्ज की मांग और आपूर्ति, दोनों की ही गिरावट को मंदी का बड़ा संकेत माना जा सकता हैं।
शेयर बाजार में गिरावट एवं घटती लिक्विडिटी
शेयर बाजार में उन्हीं कंपनियों के शेयर बढ़ते हैं, जिनकी कमाई और मुनाफा बढ़ रहा होता हैं। यदि कंपनियों की कमाई का अनुमान लगातार कम हो रहे हैं और वे उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पा रही, तो इसे भी आर्थिक मंदी के रूप में ही देखा जाता हैं। उनका मार्जिन, मुनाफा और प्रदर्शन लगातार घटता हैं।शेयर बाजार भी निवेशक का एक माध्यम हैं। लोगों के पास पैसा कम होगा, तो वे बाजार में निवेश भी कम कर देंगे। इस वजह से भी शेयरों के दाम गिर सकते हैं। अर्थव्यवस्था में जब लिक्विडिटी घटती है, तो इसे भी आर्थिक मंदी का संकेत माना जा सकता हैं। इसे सामान्य मानसिकता से समझें, तो लोग पैसा खर्च करने या निवेश करने से परहेज करते हैं ताकि उसका इस्तेमाल बुरे वक्त में कर सके। इसलिए वे पैसा अपने पास रखते हैं। मौजूदा हालात भी कुछ ऐसी ही हैं। कुल मिलाकर देखा जाए तो अर्थव्यवस्था की मंदी के सभी कारणों का एक-दूसरे से ताल्लुक हैं। विश्व स्तर पर देखा जाए तो एक एवरेज के रूप में देखा जाता हैं जैसे एक रूम में सौ लोग अलग-अलग उम्र के बैठे हो तो उन सबकी उम्र का जोड़-भाग लगाकर एक औसत उम्र निकाली जाती हैं। ठीक इसी तरह पूरी दुनिया के उत्पाद-सेवाओं का जोड़-भाग लगाकर जो आँकड़े निकलकर बाहर आते हैं वह औसत होते हैं। दुनिया भर में अथवा किसी देश विशेष में जब अधिकांश लोग उत्पाद एवं सेवाओं में वृद्धि करे तो दुनिया अथवा उस देश विशेष की आर्थिक मंदी विकास की तेज़ी में कन्वर्ट हो जाती हैं। अब इसे थोड़ा और आसानी से समझने की कोशिश करते हैं जिस तरह एक देश के अलग अलग कुल छतिस राज्यों में से अठारह राज्यों की उत्पाद-सेवाओं का एक औसत होता हैं व शेष अठारह राज्यों की उत्पाद-सेवाओं का औसत अलग होने पर उस देश विशेष की उत्पाद-सेवाओं का औसत भी अलग हो जाता हैं। इसी तरह विश्व, देश अथवा राज्यों के उत्पाद-सेवाओं की दर को औसतन देखने पर इसमें बहुत गड़बड़ियाँ हो सकती हैं। लेकिन इन उत्पाद-सेवाओं को एकदम नीचे से ऊपर की ओर देखते हैं तो व्यक्ति से शुरू करते हुए परिवार, समाज, गांव, तालुक़ा, ज़िला, संभाग, एवं राज्य के बाद देश की विकास दर को देखे तो दुनिया में मंदी कभी नहीं आएगी। हम व्यक्तिगत स्तर पर उत्पाद सेवाओं में लगातार अभिवृद्धि नहीं करे और दूसरों से ऊपरी स्तर से पूरी दुनिया से उत्पाद-सेवाओं के लिए उम्मीद रखे तो मुसीबतों के साथ मंदी का सामना करने के लिए भी तैयार रहना चाहिए।आख़िर पैसा तो उत्पाद-सेवाओं में वृद्धि करने से ही आएगा, रिज़र्व बैंक द्वारा करेंसी नॉट प्रिंट कर पुंजी डालने से बाज़ार की मंदी थोड़े समय के लिए तो टल जाएगी लेकिन यह कोई पर्मानेंट सलूशन नहीं हैं। तेज़ी और मंदी के इन दो दौर का इलाज उत्पाद-सेवाओं में वृद्धि और पुंजी का प्रवाह ही हैं। पूंजी अगर उत्पाद सेवाओं के बढ़ाने से आती हैं तो वह किसी भी देश के लिए असली पुंजी होगी अन्यथा मार्केट को धक्का देकर चलाने के लिए प्रिंटिंग प्रेस में प्रिंट की गई करेंसी पुंजी विदेशी बाज़ारों में रद्दी का एक टुकड़ा मात्र रह जाएगी। पुंजी और उत्पाद-सेवाओं के बीच मंदी एवं विकास का चोली दामन का साथ हैं इनके आपस में असंतुलन के कई कारण मौजूदा समय में हमारी अर्थव्यवस्था में मौजूद हैं। इसी वजह से लोगों के बीच आर्थिक मंदी का भय लगातार घर कर रहा हैं। सरकार भी इसे रोकने के लिए तमाम प्रयास कर रही हैं। आम लोगों के बीच मंदी की आशंका कितनी गहरी हैं कि इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि बीते पांच सालों में गूगल के ट्रेंड में ’Slowdown’ सर्च करने वाले लोगो की संख्या एक-दो फीसदी थी, जो अब 100 तक जा पहुंची हैं। यानी आम लोगों के जहन में मंदी का डर घर करने जा रहा हैं।
उत्पाद एवं सेवाओं में वृद्धि से ख़त्म होगी अर्थव्यवस्था में मंदी व पूंजी की कमी
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