आलोक जोशी।।
अर्थशास्त्र के मामले में अब पक्का राग गानेवालों का मौसम आ गया है। हालात ऐसे हो गए हैं कि किसी को कुछ सूझ नहीं रहा है, बस वाह-वाह या आह-आह किए जा रहे हैं। महंगाई आसमान की तरफ और औद्योगिक उत्पादन से लेकर जीडीपी विकास दर तक सब कुछ पाताल की दिशा में जा रहे हैं। महंगाई बढ़ने की रफ्तार पिछले 40 महीनों में सबसे ऊपर पहुंच गई है और जीडीपी का हाल तो दिख ही रहा है। जिन 21 उद्योग समूहों के आंकड़े जोड़कर औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आईआईपी) बनता है, उनमें से 18 पिछले छह माह में बढ़ने की बजाय घटने की खबर लेकर आए हैं।
पहले हिंदी में लोग आसानी से मंदी लिख देते थे। फिर किसी विद्वान ने सवाल उठा दिया कि तकनीकी परिभाषा के आधार पर यह ‘रिसेशन’ नहीं है, इसलिए आप इसे मंदी नहीं लिख सकते। दरबारी विद्वान तुरंत सक्रिय हुए और एक नया शब्द तलाश लाए- सुस्ती। अब सुस्ती और मंदी में समझ के लिहाज से क्या फर्क है, यह कोई भाषाशास्त्री ही बता सकता है। हालांकि सामान्य रूप से इन दोनों को एक ही माना जाएगा।
मुसीबत यह कि एक के बाद एक आंकड़ों की बरसात-सी हो रही है, जिनसे लगता है कि हालात ठीक तो कतई नहीं हैं। चिंता करनी ही पड़ेगी। अभी नवंबर के अंत में जीडीपी ग्रोथ का आंकड़ा आया, जो छह साल में सबसे कम था। वहीं यह भी दिखा कि फैक्टरियों का उत्पादन बढ़ने की बजाय कम हुआ है, लेकिन कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि लगातार दो तिमाही में गिरावट के बाद ही इसे मंदी माना जा सकता है। इसीलिए कहा जा सकता है कि यह मामला अब पक्के राग या शास्त्रीय संगीत के दायरे में चला गया है। बड़े-बड़े उस्ताद जो गाते हैं, उसे उनके असली कद्रदान तो समझते और सराहते हैं, मगर सबसे ज्यादा दाद देते वे नजर आते हैं, जिन्हें एक भी लय, ताल या हरकत समझ नहीं आती। अब अर्थनीति पर आ रहे ज्यादातर विचार भी कुछ ऐसे ही हैं।
अभी रघुराम राजन ने अपने एक लेख में कहा है कि देश का विकास ‘रिसेशन’ की चपेट में है, तो दूसरी तरफ, ऐसे उपाय सुझाए हैं, जो ऐसी मुसीबत में काम आ सकते हैं। राजन यह भी याद दिलाते हैं कि 2014 में इस देश ने नरेंद्र मोदी को इसलिए भी चुना था, क्योंकि उन्होंने देश को भ्रष्टाचार के साथ-साथ बेरोजगारी और महंगाई जैसी समस्याओं से मुक्ति दिलाने का वादा किया था। अच्छी बात है कि राजन ने इस हालत से निकलने का नक्शा भी बनाकर दिखाया है। वह कहते हैं कि भाजपा सरकार की ज्यादातर परेशानियों की जड़ वही समस्याएं हैं, जिनसे निपटने का वादा करके वह सत्ता में आई थी। हालांकि यह तो सरकार को तय करना है कि वह उनकी सुनेगी या नहीं, और सुन भी ली, तो इस नक्शे को जमीन पर उतारने का काम सौंपा किसे जाएगा?
हम तो ‘ग्रोथ रिसेशन’ को ही समझने की कोशिश में थे। मंदी के तीन प्रकार होते हैं। एक तो असली मंदी, जिसे अंग्रेजी में ‘रिसेशन’ कहते हैं। इसमें कारोबार बढ़ने की बजाय घटने लगते हैं। देश की जीडीपी भी बढ़ती नहीं, बल्कि सिकुड़ती है। और ऐसा कम से कम दो-तिहाई में दिखे, तब इसे मंदी माना जाता है। दूसरा होता है ‘स्लोडाउन’, जब जीडीपी के बढ़ने की रफ्तार कम हो जाती है और काफी समय तक कम बनी रहती है, लेकिन गिरावट चिंताजनक स्तर पर नहीं जाती। कभी एक तिमाही में तेज गिर गई, तो अगली तिमाही में संभल जाती है। तो फिर चिंताजनक गिरावट कब मानी जाए? यहीं आती है तीसरे किस्म की मंदी, जिसे ‘ग्रोथ रिसेशन’ कहा जा रहा है। यह नाम अर्थशा्त्रिरयों ने ईजाद किया है, क्योंकि यह ‘रिसेशन’ की तकनीकी परिभाषा के हिसाब से मंदी नहीं है। हालांकि इसे भी मंदी ही मानना चाहिए। वजह यह है कि यहां जीडीपी बढ़ने की बजाय सिकुड़ती तो नहीं है, मगर बस रेंग-सी रही होती है और साथ में तकलीफें बहुत पैदा हो जाती हैं। इस हालत में रोजगार कम होने लगते हैं।
फिलहाल विद्वान इस बात पर एकमत नहीं हैं कि भारत में ‘ग्रोथ रिसेशन’ है या नहीं। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि यहां रोजगार के आंकड़े जुटाने का कोई पक्का इंतजाम नहीं है। सवाल सिर्फ रोजगार का नहीं है, खपत या उपभोग के आंकड़ों पर भी विद्वानों, सरकारी और गैर-सरकारी संगठनों के बीच सिर-फुटव्वल चल रही है। एक समाचार पत्र में चार विद्वान लेखकों ने मिलकर इस गुत्थी को सुलझाने की कोशिश की है कि एनएसएसओ का सर्वे सही था, जिसे सरकार ने रोक रखा है या नेशनल इनकम अकाउंट्स (एनआईए) में दी गई जानकारी? दोनों की रिपोर्ट एक-दूसरे के उलट है। इन चार में पिछले आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यन भी शामिल थे। लंबी कवायद के बाद नतीजा क्या निकला कि दोनों के आंकड़े अतिवादी हैं, सच इन दोनों के बीच कहीं है।
उस सच की तलाश तो जारी है, लेकिन महंगाई और आईआईपी के डरावने आंकड़े देखने के बाद अर्थशास्त्री एक और नया शब्द ले आए हैं। अर्थशास्त्री रूपा रेगे नित्सुरे का कहना है कि भारत की अर्थव्यवस्था अब ‘स्टैगफ्लेशनरी’ चरण में जा रही है। अब यह ‘स्टैगफ्लेशन’ क्या है? शब्दकोश में इसका अर्थ है – ‘मुद्रास्फीतिजनित मंदी’। अंग्रेजी और हिंदी, दोनों में इस विकट शब्द का अर्थ इतना मुश्किल भी नहीं है। अंग्रेजी के दो शब्दों को जोड़कर बने इस शब्द को तोड़ने से बात साफ हो जाती है। ‘स्टैगनेशन’ और ‘इनफ्लेशन’ यानी ठहराव और महंगाई। यह स्थिति भी तब आती है, जब आर्थिक गतिविधियां रुक-सी जाएं, महंगाई लगातार तेज रहे और रोजगार का संकट बढ़ता जाए। अब अगर कारोबार में तेजी लाने के लिए ब्याज कम किया जाए, तो बाजार में पैसा बढ़ने से महंगाई की आग में घी पड़ जाता है। यह कुचक्र तोड़ना मुश्किल हो जाता है। हालांकि अभी ज्यादातर अर्थशा्त्रिरयों का मानना है कि अगले दो-ढाई महीनों में महंगाई गिरेगी, क्योंकि नया प्याज भी बाजार में आ जाएगा और बाकी सब्जियां भी सस्ती होंगी। तब समस्या से मुकाबला आसान होगा। लेकिन अभी तो यह सिर्फ उम्मीद ही है।
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