-निरंजन परिहार-
नई दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान दिवस की सुबह सुबह जो आदेश दिया, उसके बाद पता नहीं हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके सबसे बड़े सिपहसालार गृहमंत्री अमित शाह ने अपने चेहरों पर कालिख पुती महसूस की या नहीं! लेकिन देश ने यह जरूर महसूस किया की मोदी और शाह की जोड़ी कोई अजेय, अपराजेय और सर्वशक्तिमान नहीं है। और यह भी महसूस किया कि ताजा राजनीतिक घटनाक्रम में मोदी और शाह की हर हाल में अपनी सरकारें बनाने की कोशिशों से भारतीय राजनीति के गंदा करने की धारणा भी तेजी से फैल रही है। इसीलिए तो, जनता को कोई मतलब नहीं है कि शिवसेना ने हिंदुत्व के आधारवाली पार्टी बीजेपी का साथ छोड़ने की अनैतिकता की, उसके लिए इस बात के भी कोई मायने नहीं है कि सत्ता की सौगात के लिए कांग्रेस का हिंदूवादी पार्टी के साथ पंगत में पांव पसारना क्यों हुआ, और राष्ट्रवादी कांग्रेस का विरोधी पार्टियों के साथ गलबहियां करना भी लोगों में इसलिए मान्य है, क्योंकि भाजपा के वक्षस्थल पर चीरा लगे, उसे जोरदार झटका लगे और उसका गुरुर टूटे, यह चाह उस वर्ग में भी है, जो मोदी और शाह के जयकारे लगाकर उनको फिर से देश की सत्ता में लाये हैं और उनके लिए पलक पांवड़े भी बिछाते रहे है। ऐसी स्थिति हममें अक्सर तब आती है जब हमारी आशाओं के प्रणेता अपनी गरिमा भूलकर सत्ता के लिए समझौतों की सियासी बिसात बिछाने लग जाएं। देश ने देखा कि क्या खूब पटाक्षेप हुआ राजभवनों और राजनिवासों में संवैधानिक पदों पर बैठे हुक्मरानों द्वारा संविधान को धत्ता बताने का। और हर कीमत पर सत्ता हासिल करने की कवायद में जुटे देवेंद्र फड़णवीस की पॉवर हाईजेकिंग पॉलिटिक्स का! इस पूरे राजनीतिक कांड में भारतीय राजनीति के मौजूदा कालखंड के कई सबक और तथ्य निहित है। उनमें सबसे पहला यह तथ्य है कि ‘ चाहे कोई कितना भी ताकतवर क्यों ना हो, उससे डरो नहीं लड़ो’ तो गुलामों के बीच भी ज़बरदस्त बेखौफी का माहौल बन सकता है! जैसा मोदी और शाह की राजनीति के समर्थकों का बदला हुआ मन और चेहरा बोल रहा है। यही कारण है कि कभी सत्ता के लालच में लपलपाती जुबानें जो फडणवीस के सामने सन्न रह जाती थीं, वे भी उन्हीं के सामने सुलगते सियासी सवाल करने लगीं।
याद कीजिए, बिना किसी अंक गणितीय समर्थन के, केवल अजीत पवार के भरोसे सुबह सुबह अचानक फिर से सीएम बन बैठे देवेंद्र फडणवीस की इस्तीफा देने से पहले की प्रेस कांफ्रेस को, जिसमें मुंबई के सीधे सादे और भोले से लगने वाले भले पत्रकारों ने भी चौतरफा हमले के अंदाज में उनसे जैसे तीखे सवाल किए, उन्हें सुनकर केवल 80 घंटे के लिए फिर से सीएम बने फडणवीस को भी यह सोचना पड़ा कि ऐसे कैसे अचानक इन सबकी भी हिम्मत खुल गई! बहुत बेबाकी और लगभग वार – प्रहर के अन्दाज़ में फड़णवीस से पूछा गया कि जिस अजित पवार के लिए आप वर्षों तक लगातार ‘चक्की पीसिंग – चक्की पीसिंग’ कहते रहे, उनका समर्थन आपने लिया कैसे? कैसे कुछ ही घंटों में उन्हें कैसे 70 हजार करोड़ रुपये के घोटाले से मुक्ति दे दी ? और कैसे किसकी बिसात पर आप सत्ता का बहुमत साबित करने निकले थे ?
भले, भोले, सीधे सादे और सरल लोग ही नहीं स्तुति करने वाले लोगों में इतनी हिम्मत आसानी से नहीं आती। लेकिन सत्ता के गुरुर में सियासतदां जब घोषित रूप से भ्रष्ट लोगों से गलबहियां करके कुर्सी पाने के रास्ते पर निकल पड़े तो आपके जूतों के बीज जुबानें उग ही आती है। वैसे, जो लोग यह मानते हैं कि मोदी और शाह की जोड़ी को कोई हरा नहीं सकता, वे याद करें गुजरात में राज्यसभा का चुनाव, जिसमें महाताकतवर माने जाने वाले अमित शाह को अशोक गहलोत की रणनीति ने चारो खाने चित कर के अहमद पटेल को जिता कर संसद में भेजा। अशोक गहलोत ने तो खैर उसके बाद भी राजस्थान में मोदी और शाह की जोड़ी को बुरी तरह से हराकर सत्ता हासिल की। और अब शरद पवार ने पूरी ताकत से सब को एकजुट करके इस जोड़ी को हराकर दोनों को साफ तौर पर यह संदेश दे दिया है कि आप अकेले ही इस देश में ताकतवर नहीं हैं । दरअसल, देश को नरेंद्र मोदी से राजनीतिक शुचिता की आस थी, लेकिन वे तो उसी राजनीतिक गंदगी में गले तक उतर गए और अमित शाह से देश में सत्ता को ताकतवर रूप से अहम बनाने की उम्मीद थी, पर वे भी अपने ताकतवर होने का दुरुपयोग करने पर उतारू हो गए। सच तो यह है कि बीजेपी भी अब कुछ सालों से बिल्कुल वही बन गई है जो सालों सालों से कांग्रेस करती रही है। फिर सत्ता के खेल में अगर यही सब जायज है, तो जनता आपसे हर तरह के सवाल करे वह भी तो जायज है। है कि नहीं ? फिर, सत्ता के खेल में अगर यही सब कुछ जायज है, तो फिर हिंदुत्व वाली पार्टी शिवसेना, कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस के साथ मिलकर महाराष्ट्र की सत्ता में आने का रास्ता चुने, तो उसमें गलत क्या है ?
( लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)