अश्विनी महाज।।
बीते शुक्रवार को केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय द्वारा अप्रैल से जून की तिमाही की विकास दर के आंकडे़ प्रकाशित किए गए। इनके अनुसार इस तिमाही में पिछले छह वर्षों में सबसे कम जीडीपी ग्रोथ यानी पांच प्रतिशत दर्ज की गई है। पहले से ही चल रही आर्थिक मंदी की खबरों के चलते इन आंकड़ों के कारण आर्थिक जगत की चिंता स्वाभाविक है। पर हमें समझना होगा कि अर्थव्यवस्था के इस प्रकार के सामूहिक आंकड़ों से उसके हालात का सही जायजा नहीं लिया जा सकता।
अर्थव्यवस्था के तीन प्रमुख क्षेत्र ऐसे हैं, जिनमें सात प्रतिशत से ज्यादा ग्रोथ हुई है। ये क्षत्र हैं- इलेक्ट्रिसिटी गैस ऐंड वाटर सप्लाई और अन्य सेवाएं (8.6 प्रतिशत) व्यापार, होटल, ट्रांसपोर्ट, संचार और ब्रॉडकास्टिंग (7़1 प्रतिशत) पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन, प्रतिरक्षा और अन्य सेवाएं (8.5 प्रतिशत)। कृषि में ग्रोथ दो प्रतिशत, खनन में 2.7 प्रतिशत और विनिर्माण में 0.2 प्रतिशत हुई है। कंस्ट्रक्शन में ग्रोथ 5.7 प्रतिशत और वित्तीय सेवाओं, रियल एस्टेट व प्रोफेशनल सेवाओं में 5.9 प्रतिशत आंकी गई है। पिछली तिमाही में जिस तरह से ऑटोमोबाइल क्षेत्र में मांग में भारी गिरावट देखी गई थी, उसके चलते जीडीपी ग्रोथ के ये आंकडे़ बहुत आश्चर्यजनक नहीं हैं।
असली प्रश्न यह है कि ये आंकडे़ क्या किसी गहरी मंदी की ओर बढ़ने के संकेत कर रहे हैं? अंतरराष्ट्रीय सलाहकार फर्म गोल्डमैन सैक का कहना है कि यह धीमापन जल्द समाप्त हो जाएगा। एशियाई विकास बैंक ने भी रिजर्व बैंक द्वारा अधिशेष हस्तांतरित किए जाने से भारतीय अर्थव्यवस्था को गति मिलने के संकेत दिए हैं।
पिछले कुछ महीनों से पूरी दुनिया में धीमापन आया है। अमेरिका में जहां इस वर्ष की पहली तिमाही में विकास दर 3़1 प्रतिशत थी, वही दूसरी तिमाही में यह 2़1 प्रतिशत दर्ज की गई। यूरोपीय संघ में भी पहली तिमाही की ग्रोथ 0.4 प्रतिशत थी, जो दूसरी तिमाही में घटकर 0.2 प्रतिशत रह गई। चीन की सरकार ने भी जो आंकड़े दिए हैं, उसके अनुसार वहां की विकास दर पहली तिमाही की 6.4 प्रतिशत से घटकर दूसरी तिमाही में 6.2 प्रतिशत रह गई। आज विश्व के सभी देश आर्थिक रूप से एक-दूसरे से जुडे़ हुए हैं और एक देश की मंदी शेष मुल्कों को प्रभावित करती है। ऐसे में, पिछले कुछ समय से चल रही वैश्विक मंदी का असर भारत पर पड़ना स्वाभाविक है। पिछले कुछ समय से तेल की बढ़ती कीमतों के कारण भी अर्थव्यवस्थाओं की गति धीमी हुई है।
अर्थव्यवस्था की गति के कई मापदंड होते हैं। उनमें से एक है, उपभोक्ता वस्तुओं की मांग। यदि उपभोक्ता वस्तुओं की बड़ी कंपनियों के आंकडे़ देखें, तो हिन्दुस्तान लीवर की बिक्री में पिछली तिमाही (अप्रैल-जून) में सात प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई, मेरिको में पांच प्रतिशत, डाबर इंडिया में 11 प्रतिशत, कॉलगेट में चार प्रतिशत और नेस्ले की बिक्री में 11 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई। इसी तिमाही में बिग बाजार की बिक्री में आठ प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई, तो गृहस्थों के बैंक ऋण में 16.6 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि दर्ज हुई है। एयर कंडिशनरों की मांग में पांच प्रतिशत, वाशिंग मशीन में तीन प्रतिशत और रेफ्रिजरेटरों की बिक्री में 11 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई है। जाहिर है, उपभोक्ता वस्तुओं की बिक्री के लिहाज से अर्थव्यवस्था में धीमेपन के लक्षण नहीं दिखाई देते। तो फिर ऐसा क्या हुआ कि विकास दर के धीमे पड़ने की कहानियां छपने लगीं?
हुआ यूं कि इसी बीच ऑटोमोबाइल क्षेत्र में मांग में भारी कमी दर्ज हुई। व्यावसायिक और निजी, दोनों प्रकार के वाहनों की मांग में कमी आई है। यात्री वाहनों की मांग हालांकि 2018 से ही कम होती जा रही थी, लेकिन अप्रैल-जून तिमाही के हर महीने ही यह कमी दर्ज हुई। व्यावसायिक वाहनों की मांग जो जनवरी-मार्च की तिमाही में स्थिर थी, अप्रैल में छह प्रतिशत, मई में 10 प्रतिशत और जून में 12.3 प्रतिशत वार्षिक की दर से घटी। तिपहिया और दोपहिया वाहनों की स्थिति भी लगभग ऐसी ही थी। हालांकि हमें समझना होगा कि जहां निर्यात में मंदी अंतरराष्ट्रीय कारणों से होती है, ऑटोमोबाइल की मंाग में कमी घरेलू कारणों से है। मगर यह कारण मंदी नहीं है, बल्कि बैंकिंग और वित्तीय है। गौरतलब है कि पिछले कुछ समय से भारतीय बैंकिंग क्षेत्र एनपीए यानी डूब गए कर्ज की समस्याओं से गुजर रहा है। इस समस्या का बैंकों द्वारा दिए जाने वाले कर्ज पर खासा असर पड़ा है। दूसरी तरफ, एनबीएफसी यानी गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियां भी भारी समस्या से गुजर रही हैं। इन कंपनियों की ऋण देने की क्षमता तो घटी ही है, साथ ही बैंक भी इन्हें कर्ज देने से कतरा रहे हैं। लिहाजा उपभोक्ताओं को वाहन समेत स्थाई वस्तु खरीदने के लिए कर्ज देने वाली ये कंपनियां अब ऋण नहीं दे पा रही हैं। इनकी इस समस्या का असर लघु उद्योगों पर भी पड़ा है।
मंदी के प्रभाव का आकलन करना हो, तो वह उपभोक्ता मांग, घरों की मांग, वाहनों की मांग, निवेश मांग और सरकारी मांग से की जाती है। मगर देश में मांग के आंकड़ों को देखें, तो यही दिखता है कि मांग की ग्रोथ में पहले से कमी आई, पर यह कमी सभी क्षेत्रों में एक सी नहीं है। वाहनों की मांग घटी है, मगर उपभोक्ता मांग घटी तो नहीं, अलबत्ता उसकी वृद्धि दर पहले की अपेक्षा कम हुई। यदि घरों की मांग देखें, तो बैंकों द्वारा रियल एस्टेट के लिए पहले से ज्यादा तेजी से कर्ज दिए गए।
आखिर क्या है इसका समाधान? हर बार की तरह कॉरपोरेट क्षेत्र सरकार पर दबाव बना रहा हैै कि उसके लिए राहत पैकेज का इंतजाम हो। मगर सरकारी खजाने की सीमाओं के चलते यह सही कदम नहीं होगा। आज जरूरत इस बात की है कि चिरस्थाई उपभोक्ता वस्तुओं, घरों और वाहनों की मांग बढ़ाई जाए। इस काम में प्रमुख भूमिका बैंकों की होगी। पिछले काफी समय से बैंकों का क्रेडिट बहुत सुस्त गति से बढ़ रहा है। रिजर्व बैंक द्वारा बैंकों की लिक्विडिटी बढ़ाना इसके लिए जरूरी कदम होगा। उधर सरकारी खर्च बढ़ाने के लिए राजस्व बढ़ाना जरूरी है। हालांकि वर्तमान वैश्विक मंदी की स्थिति में यदि सरकार राजकोषीय घाटे को थोड़ा बढ़ा भी दे, तो उससे विशेष खतरा नहीं है।
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