-‘सम्बोधि’ ग्रन्थाधारित व्याख्यानमाला लोगों के लिए बन रही कल्याणकारी
-आचार्यश्री ने धर्म के प्रकारों का किया विवेचन, लोगों को धर्म के पथ पर बढ़ने की दी पावन प्रेरणा
-‘महात्मा महाप्रज्ञ’ के माध्यम से कथा प्रसंगों का किया सरसशैली में वर्णन
कुम्बलगोडु, बेंगलुरु (कर्नाटक): सूचना और प्रौद्योगिकी में भारत का अग्रणी महानगर, फूलों की नगरी के विख्यात तथा अपने खुशनुमा मौसम के लिए प्रसिद्धि को प्राप्त कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरु वर्तमान में धर्म के क्षेत्र में भी अग्रणी बनने की राह पर अग्रसर है। हो भी क्यों नहीं, जब स्वयं तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान देदिप्यमान महासूर्य, अध्यात्मवेत्ता, महातपस्वी, परम साधक, शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी सैंकड़ों साधु-साध्वियों के साथ बेंगलुरु महानगर के कुम्बलगोडु में स्थित आचार्यश्री तुलसी महाप्रज्ञ चेतना सेवाकेन्द्र में मंगल चतुर्मास कर रहे हैं। चतुर्मासकाल के दौरान आचार्यश्री महाप्रज्ञजी द्वारा संस्कृत भाषा में रचित ग्रन्थ ‘सम्बोधि’ के माध्यम से बेंगलुरुवासियों को ऐसा सम्बोध प्रदान कर रहे हैं कि उससे उनके जीवन में कितनी-कितनी समस्याओं का सहज ही समाधान प्राप्त हो रहा है और उनके भीतर धार्मिकता और आध्यात्मिकता की मानों नवीन पौध तैयार होने लगी है। आचार्यश्री के श्रीमुख से नियमित रूप से प्रस्फुटित होने वाले सम्बोध जन-जन को मानसिक शांति प्रदान कर रहे हैं। इस प्रकार कहा जा सकता है कि बेंगलुरु का सुहावना मौसम लोगों को जहां बाहरी शांति प्रदान कर रहा है कि तो आचार्यश्री की पावन प्रेरणा लोगों को मानसिक शांति प्रदान कर रही है। यहीं कारण है कि मुख्य शहर से कई किलोमीटर बाहर होने के बाद भी नियमित रूप से हजारों की संख्या में श्रद्धालु महातपस्वी महाश्रमण के मंगल चरणों में उपस्थित होते हैं और पावन सम्बोध ग्रहण करते हैं।
सोमवार को चतुर्मास प्रवास स्थल परिसर में बने भव्य ‘महाश्रमण समवसरण’ में उपस्थित श्रद्धालुओं को आचार्यश्री ने पावन सम्बोध प्रदान करते हुए कहा कि धार्मिक कौन और अधार्मिक कौन होता है? इस प्रश्न का उत्तर अनेक रूपों में दिया जा सकता है। इसके एक रूप में यह भी कहा जा सकता है कि जिसके जीवन में संवर की साधना हो, वह धार्मिक होता है। जिसके जीवन में निर्जरा की बात भी हो वह भी कुछ अंशों में धार्मिक हो सकता है। आचार्यश्री ने अपने पावन पाथेय के दौरान दसवेंआलियं ग्रन्थ के रचना घटना-प्रसंग का वर्णन करते हुए कहा कि इस आगम के पहले श्लोक में अहिंसा, संयम और तप को धर्म बताया गया है।
उसी प्रकार धर्म के दो प्रकार बताए गए हैं-संवर और निर्जरा। इसमें ही सारा धर्म समाविष्ट हो जाता है। गुणस्थान के आधार पर संवर को उच्च स्थान प्राप्त है तो निर्जरा को थोड़ा निम्न स्थान प्राप्त है। पहले गुणस्थान से लेकर चार गुणस्थान में रहने वाले मनुष्यों के संवर तो हो ही नहीं सकता। पांचवें गुणस्थान से संवर का आरम्भ होता है और मनुष्य के भीतर जैसे-जैसे संवर की साधना बढ़ेगी, वैसे-वैसे उसका गुणस्थान भी बढ़ सकेगा। संवर उच्च कोटि का धर्म है। निर्जरा तो नास्तिक की भी हो सकती है, किन्तु संवर हो जाने के बाद कर्म आते नहीं है और निर्जरा के माध्यम से आदमी अपने पूर्वकृत कर्मों का क्षय कर मोक्ष की दिशा में गति कर सकता है। इसलिए आदमी को संवर और निर्जरा की साधना करने का प्रयास करना चाहिए। आचार्यश्री ने ‘महात्मा महाप्रज्ञ’ के वर्णित कथा प्रसंगों का सरसशैली में वर्णन किया।