मोहन भंडारी।।
चार मई, 1999 को कारगिल सेक्टर के बटालिक क्षेत्र में पाकिस्तानी सेना की घुसपैठ प्रारंभ हुई। धीरे-धीरे उसने चोरबाटला दर्रा और इसके भी आगे भारतीय इलाके के 120 किलोमीटर क्षेत्र विशेष में हेलीकॉप्टर इत्यादि लगाकर जोजिला-लेह राजमार्ग को अवरुद्ध कर दिया। सभी ऊंची पहाड़ियों पर कब्जा करके अगले दो हफ्तों में चार से नौ किलोमीटर लाइन ऑफ कंट्रोल से अंदर आकर भारतीय सेना पर लगातार फायरिंग शुरू कर दी। भारतीय सेना को दुश्मन की इस अचानक तैनाती से बहुत नुकसान उठाना पड़ा।
यह भयावह स्थिति थी। मई के दूसरे सप्ताह में मिलिट्री ऑपरेशन डायरेक्टरेट सभागार में पहली कैबिनेट कमिटी ऑफ पॉलिसी अफेयर्स (सिक्युरिटी) की बैठक प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की अध्यक्षता में हुई। सबसे पहले दोनों खुफिया प्रमुखों ने यह स्वीकार किया कि उनका सूचना तंत्र पूरी तरह विफल रहा और इस तरह भारत की सुरक्षा में इतनी बड़ी चूक हुई। प्रधानमंत्री कुछ नहीं बोले और आगे की सुध लेने को कहा। जब हवाई ताकत के इस्तेमाल पर मंत्रणा हुई, तो वायु प्रमुख और भारतीय उप-सेनाध्यक्ष के बीच हुई गरमागरम बहस को वाजपेयी जी सहन नहीं कर सके। भारतीय सेनाध्यक्ष उस समय वहां मौजूद नहीं थे। अचानक प्रधानमंत्री खडे़ हो गए और कहा कि पहले आप लोग अपने मतभेद सुलझा लीजिए। मीटिंग समाप्त हो गई और वायु सेना का इस्तेमाल नहीं हो पाया। वहां उपस्थित सभी अधिकारी अचंभित थे।
यह दूसरी मीटिंग थी, जो मई महीने के तीसरे हफ्ते में उसी सभागार में हुई। तब थल सेनाध्यक्ष की उपस्थिति में काफी वाद-विवाद हुआ। अंतत: प्रधानमंत्री के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने वायु सेना को तैनात करने का आदेश दिया। वायु सेना का इस्तेमाल 22 दिनों के बाद 26 मई, 1999 को हुआ। इस बीच काफी बहुमूल्य समय बर्बाद हुआ। भारतीय सशस्त्र सेनाओं के पास अस्त्र-शस्त्रों और गोला-बारूद की भी कमी थी। आपस में तालमेल की कमी थी और नौकरशाही की कठिन प्रणाली भी थी। मिराज 2000 के लेजर गाइडेड बम भी तुरंत उपलब्ध नहीं थे। दुश्मन सिर पर बैठा था और राष्ट्रीय राजमार्ग पर भारी गोला-बारी कर रहा था। अब और अधिक सोचने का समय नहीं था। हमने इसलिए भी यह निर्णय लिया था कि हम लाइन ऑफ कंट्रोल को पार नहीं करेंगे। पाकिस्तान के साथ कूटनीनिक संबंध बदस्तूर बने हुए थे। इस पृष्ठभूमि में भारतीय थल सेनाध्यक्ष ने कहा था कि जो भी हमारे पास है, हम उसी से लड़ेंगे।
कारगिल युद्ध की समाप्ति की घोषणा 25 जुलाई, 1999 को दोपहर बाद प्रधानमंत्री ने की। तभी हम 26 जुलाई को विजय दिवस मनाते हैं। अब युद्ध तो समाप्त था, लेकिन तीन दिनों बाद ही 29 जुलाई, 1999 को ‘कारगिल रिव्यू कमिटी’ बनाई गई। के सुब्रमण्यम इस समिति के अध्यक्ष बने। आखिरकार 7 जनवरी, 2000 को यह रिपोर्ट प्रधानमंत्री वाजपेयी को उनके ऑफिस में प्रस्तुत कर दी गई। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि पिछले 20 वर्षों में कुछ नहीं हो पाया। अभी तक तीन सेना प्रमुखों में से वरिष्ठ ‘चीफ ऑफ स्टाफ कमिटी’ का चेयरमैन होता है। और वह सेनाओं की बात एक पत्र के माध्यम से रक्षा मंत्री को भेजता है। इतनी ही ताकत है इस प्रणाली में। अक्सर यह देखा गया है कि इन पत्रों को फाइल कर दिया जाता है। यह आश्चर्य है कि रक्षा सचिव भारत की सुरक्षा का जिम्मेदार है। वहां अधिकार तो हैं, लेकिन जिम्मेदारी और जवाबदेही नहीं है। अधिक आश्चर्य की बात यह है कि राष्ट्र की सर्वोच्च सुरक्षा समिति में तीनो सेनाध्यक्ष शामिल नहीं हैं। अगर रक्षा सचिव चाहें, तो उन्हें बुलाते हैं, अन्यथा नहीं। ऐसा किसी भी देश में नहीं होता।
सुब्रमण्यम समिति के बाद वर्ष 2001 में एक ‘ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स’ की संरचना हुई, जिसने भी सुब्रमण्यम समिति की रिपोर्ट को स्वीकार किया। इसमें ‘चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ’ बनाने की संस्तुति दी गई थी। सारा मामला फिर ठंडे बस्ते में चला गया। 2012 में नरेश चंद्र समिति का गठन हुआ और उन्होंने इस मामले को और उलझा दिया। उन्होंने कहा कि ‘चेयरमैन, चीफ ऑफ स्टाफ कमिटी’ को स्थाई कर दिया जाए और सेनाध्यक्षों में से सबसे सीनियर को चेयरमैन बनाया जाए। ये नौकरशाही की चालें थीं, जो नहीं चाहती थीं कि चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ बने। रक्षा मंत्रालय में आज भी विरोध के स्वर उभर रहे हैं। लेकिन नौकरशाही को यह समझना होगा कि संयुक्त प्रयत्न ही राष्ट्र को प्रगति-पथ पर अग्रसर कर सकते हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ बनाने की घोषणा सराहनीय है। सबसे पहले तो यह बहुत जरूरी है कि रक्षा मंत्रालय और तीनों सेनाओं में समग्र तालमेल हो। अभी यह खाली कागजों पर हो रहा है। रक्षा, गृह व अन्य मंत्रालयों और तीनों सेनाओं के बीच आपसी सम्मान और समन्वय ही इस पद को सफल बना सकता है। इस कमजोरी का निदान परम आवश्यक है। मतभेद हो सकते हैं, लेकिन मनभेद नहीं। यही वाजपेयी भी कहते थे। हमारे राजनेताओं को यह समझना होगा कि सशस्त्र सेनाएं वर्ग और संप्रदाय के भेद से कोसों दूर हैं। तमाम सैन्यवर्ग और नौकरशाह एक साथ ट्रेनिंग करें और एक-दूसरे की कार्य प्रणाली को भली-भांति समझें। भारत जैसे देश में, जहां सशस्त्र सेनाओं की इतनी बड़ी संख्या और इतना विस्तार है, वहां पर इस मामले में एक राष्ट्रीय सोच और संस्कृति का होना बहुत जरूरी है।
निश्चित रूप से यह पद सिंगल एडवाइजरी के रूप में सरकार को अपनी रणनीति से अवगत कराता रहेगा। तीनों सेनाध्यक्षों में गहन वार्ता के बाद ही एक निश्चित रणनीति बनेगी, जो प्रधानमंत्री को चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ द्वारा प्रस्तुत की जाएगी। आज पूरे विश्व में ज्वॉइंटमैनशिप व ग्रुप डायनेमिक्स से ही युद्ध जीते जाते हैं। यह तभी संभव है, जब सब एक व्यवस्था का इस्तेमाल करें और कारगिल जैसी स्थिति न पैदा हो। नौकरशाही का पूर्ण सहयोग भी इसमें अपेक्षित है।
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