-रविवार को ‘महाश्रमण समवसरण’ में अपने आराध्य से समाधान प्राप्त कर निहाल हो उठा जन-मन
-‘सम्बोधि’ के माध्यम से आत्मवाद, लोकवाद और कर्मवाद को आचार्यश्री ने किया व्याख्यायित
-ज्ञानशाला दिवस पर उपस्थित ज्ञानार्थियों को महातपस्वी से मिला आध्यात्मिक अभिसिंचन
-ज्ञानार्थियों, प्रशिक्षकों और प्रशिक्षिकाओं ने अपने आराध्य के समक्ष प्रस्तुत की अपनी भावांजलि
कुम्बलगोडु, बेंगलुरु (कर्नाटक): जन-जन के मानस को पावन बनाने वाले, अपनी ज्ञानगंगा से लोगों के सूखे हृदय को अभिसिंचन प्रदान करने वाले जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशमाधिशास्ता, राष्ट्रीय संत, शांतिदूत, महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमणजी ने रविवार को ‘महाश्रमण समवसरण’ में उपस्थित चतुर्विध धर्मसंघ को अपनी जिज्ञासाओं को प्रकट करने का आह्वान किया तो मानों जिज्ञासाओं की झड़ी लग गई। साधु, साध्वी, समणश्रेणी, बालक और बालिकाओं ने अपनी जिज्ञासा को अभिव्यक्त किया तो महात्मा महाश्रमणजी ने अपनी वाक्पटुता और ज्ञान सागर द्वारा ऐसा सटिक और प्रेरक समाधान प्रदान किया कि जिज्ञासाकर्ताओं की जिज्ञासा ही नहीं शांत हुई, अपितु विशाल जनमेदिनी की अनेक जिज्ञासाओं का सामधान प्राप्त हो गया और उनके मन के भीतर आंतरिक प्रसन्नता व्याप्त हो गई। इसकी अभिव्यक्ति विशाल जनमेदिनी के प्रसन्नचित्त चेहरे उस आंतरिक प्रसन्नता की गाथा गा रहे थे।
रविवार को ‘महाश्रमण समवसरण’ ही नहीं, पूरा आचार्य तुलसी महाप्रज्ञ चेतना सेवाकेन्द्र जनाकीर्ण बना हुआ था। एक तो रविवार का दिन था और दूसरे आज ज्ञानशाला दिवस भी था। इसके कारण बेंगलुरुवासियों के लिए आध्यात्मिकता की खुराक प्राप्त करने का सुअवसर था तो ज्ञानशाला दिवस पर बेंगलुरु की समस्त ज्ञानशालाओं के ज्ञानार्थी, प्रशिक्षक और प्रशिक्षिकाएं भी अपने आराध्य के सुपावन चरणों में कुछ प्राप्त करने की आशा से उपस्थित थे। नित्य की भांति आचार्यश्री मंचासीन हुए तो उनके दोनों ओर गुरुकुलवासी कुछ संतों और साध्वीवृंद का समुदाय भी उपस्थित था और सामने की ओर नजर आ रही विशाल जनमेदिनी को जो इस विराट समवसरण को भी मानों बौना साबित करते हुए पूरे प्रवचन पंडाल के चारों ओर यथोचित स्थान प्राप्त कर अपने आराध्य की मंगलवाणी का श्रवण करने को समुत्सुक थी। आचार्यश्री ने ‘सम्बोधि’ के माध्यम से श्रद्धालुओं को पावन सम्बोध प्रदान करते हुए कहा कि आत्मवाद कहता है कि आत्मा स्थाई होती है। आत्मा को कोई काट नहीं सकता, उसे कोई जला भी नहीं सकता, न ही उसे गीला किया जा सकता है और न ही उसे सूखाया जा सकता है। एक आत्मा के असंख्य प्रदेश होते हैं। आत्मा का विस्तार और संकोच इतना है कि चाहे तो वह पूरे लोक में आच्छादित हो जाए तो चाहे तो एक चींटी के शरीर में भी विराजमान हो जाए। आत्मवाद में पुनर्जन्म का सिद्धांत है। जिस प्रकार आदमी पुराने कपड़ों को छोड़कर नए कपड़े पहनता है, उसी प्रकार आत्मा भी पुराने शरीर का परित्याग कर नया शरीर धारण करती है। कर्मवाद का सिद्धांत कहता है कि जो व्यक्ति अथवा प्राणी जैसा करता है, उसे वैसा मिल प्राप्त होता है। भला करने वाला का भला होता है और बुरा करने वाले का बुरा होता है। ‘सम्बोधि’ में मुनि मेघ द्वारा भगवान महावीर से प्रश्न किया गया कि भले का भला और बुरे का बुरा वाली बात कुछ ठीक नहीं बैठती। एक साधना करने वाले, धर्म-ध्यान करने वाले आदमी को भी असहनीय दुःख झेलना पड़ सकता है और पापाचार लिप्त आदमी को भी सुखी देखा जा सकता है। भगवान महावीर ने समाधान प्रदान करते हुए कहा कि यह केवल आंखों का धोखा होता है। धार्मिकता, संयमयुक्त, ईमानदारी और सच्चाई से जीवन जीने वाले आदमी के भीतर जितना सुख होता है, वह बेइमानी, अनाचार, दुराचार करने वाले आदमी में नहीं पाया जा सकता। हालांकि की पापाचार करने वाले के पास मकान हो सकता है, दुकान हो सकता है, अनेकानेक भौतिक सुख-सुविधाएं प्राप्त हो सकती हैं, किन्तु उसके भीतर शांति का सर्वथा अभाव ही होता है। एक धार्मिक आदमी को कोई कष्ट प्राप्त हो जाए तो यह मानना चाहिए कि उसके पूर्वकृत कर्मों का उदय हुआ है तो इस जन्म में भोगना पड़ रहा है। आदमी को धर्मयुक्त जीवन जीने का प्रयास करना चाहिए।
मंगल प्रवचन के पश्चात् आचार्यश्री ने सर्वप्रथम साधु-साध्वी, समण श्रेणी से जिज्ञासा करने का आह्वान किया तो मुनि कोमलकुमारजी, मुनि विश्रुतकुमारजी, मुनि हितेन्द्रकुमारजी, साध्वीवर्याजी, समण सिद्धप्रज्ञजी तथा अनेक बालक-बालिकाओं ने अपनी जिज्ञासा प्रस्तुत की तो आचार्यश्री ने एक-एक जिज्ञासाओं का समाधान इतने सुन्दर ढंग से प्रदान किया, जिससे प्रश्नकर्ताओं की जिज्ञासा के समाधान के साथ-साथ उपस्थित जनमेदिनी के लिए ज्ञान को प्रवर्धमान बना गए और उनके भीतर की भी जिज्ञासाओं को समाधान प्रदान कर गए। तभी तो आचार्यश्री के प्रत्येक समाधान के बाद ‘ऊँ अर्हम्’ की गूंज से समूचा वातावरण गुंजायमान हो रहा था।
ज्ञानशाला दिवस के अवसर पर विशेष रूप से उपस्थित ज्ञानशाला परिवार को आचार्यश्री ने पावन पाथेय प्रदान करते हुए कहा ज्ञानशाला संस्कार निर्माण और आध्यात्मिक ज्ञान के विकास का बहुत अच्छा माध्यम है। ज्ञानशाला एक प्रशस्त उपक्रम है। ज्ञानशाला का खूब अच्छा विकास हो। तेरापंथ धर्मसंघ की असाधारण साध्वीप्रमुखाजी ने भी उपस्थित ज्ञानशाला परिवार और विराट जनमेदिनी को प्रतिबोध प्रदान प्रदान किया। बेंगलुरु चतुर्मास प्रवास व्यवस्था समिति के अध्यक्ष श्री मूलचंद नाहर, बेंगलुरु सभा के मंत्री श्री प्रकाशचंद लोढ़ा, ज्ञानशाला के आंचलिक संयोजक श्री माणक संचेती व श्री गौतम ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी। इस दौरान ज्ञानशाला के ज्ञानार्थियों, प्रशिक्षक-प्रशिक्षिकाओं द्वारा अनेक प्रस्तुतियों के माध्मय से श्रीचरणों अभिवन्दना अर्पित की गई। लगभग पांच सौ से अधिक ज्ञानार्थियों की उपस्थिति में ज्ञानशाला दिवस का कार्यक्रम प्रभावशाली रहा। तपस्या के क्रम में श्रीमती बिन्दुराय सोनी ने 28 की तपस्या का प्रत्याख्यान किया। इसके अलावा भी दर्जनों तपस्वियों ने अपनी-अपनी धारणा के अनुसार आचार्यश्री से प्रत्याख्यान किया।