मुंबई। आ. रविशेखरसूरीश्वरजी म. सा. की निश्रा में नेमानी वाड़ी, ठाकुरद्वार के प्रांगण में पं. ललितशेखरविजयजी म. सा. ने “18 पापस्थानक” विषय पर प्रवचन दिया।
पहला महा पाप प्राणातिपात यानी हिंसा। हिंसा का कारण दिल की कठोरता। 3 प्रकार की हिंसा, प्राण घात (हत्या), पीड़ा (शारीरिक) और संकलेश (मानसिक संताप), तीनों के 2 भेद स्व (खुद) और पर (पराया)। मनुष्य, देव और तिर्यंच के जीव मरना नहीं चाहते, सिर्फ नरक के जीव मौत चाहते हैं। श्रावक के घर में 10 चन्दरवे बांधने का विधान जिससे कोई जीव पानी के मटके, चूल्हे या रसोई, पलंग, अनाज खांडने और पीसने, आदि में ऊपर से ना गिरे और हिंसा ना हो।
श्रावक के 12 व्रत, पहला स्थूल विरमण व्रत यानी कम से कम हिंसा हो और हिंसा से अटकना। जीव के 2 भेद, त्रस (चलते-फिरते, बेइंद्रिय, तेइंद्रिय, चउरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय कुल 32 लाख योनि) और स्थावर (स्थिर और एकेन्द्रिय 52 लाख योनि), पंचेन्द्रिय जीव के 2 भेद, संगणि (विकसित मन, मनुष्य, देवता और नारकी) और असंगणी (अविकसित मन, तिर्यंच)।
प्राण के 10 प्रकार, स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, श्रोतेन्द्रीय, मनबल, वचनबल, कायाबल, श्वासोश्वास और आयुष्य। शरीर में जिस जगह संवेदना नहीं वहां प्राण नहीं जैसे बड़े हुए नाखून, बाल, आदि। एकेन्द्रिय में 4 प्राण, बेइंद्रिय में 6 प्राण, तेइंद्रिय में 7 प्राण, चउरिन्द्रिय में 8 प्राण और पंचेन्द्रिय में 10 प्राण। 10 में से किसी भी 1 प्राण की भी हिंसा करना यानी प्राणातिपात। हमारा जीवन एकेन्द्रिय (पृथ्वीकाय, अपकाय, तेउकाय, वाउकाय और वनस्पतिकाय) जीवों की हिंसा के बिना नहीं चल सकता, हम इनके बिना जिंदा नहीं रह सकते पर ये हमारे बिना जिंदा रह सकते हैं, इसलिए जितना हो सके उतनी कम हिंसा करें।
हमारे शरीर में साढ़े 3 करोड़ रूवाटे होते हैं, सभी रुवाटो में गर्म सुई चुभोई जाए उतना दर्द जन्म के समय होता हैं और उससे 8 गुना ज्यादा दर्द मौत के समय होता हैं। ज़रूरत से ज्यादा कोई ऐसी क्रिया ना करें जिससे प्राणातिपात हो।
किशन सिंघवी और कुणाल शाह के अनुसार प्रवचन पश्चात श्री ऋषभ महा-विद्या तप के एकासणे के लाभार्थियों का बहुमान किया गया। वहीं ठाकुरद्वार संघ के पदाधिकारी और समर्पण ग्रुप के कार्यकर्ताओं के अलावा सैकड़ों श्रावक-श्राविकाओं की उपस्थिति रही।
हिंसा का कारण दिल की कठोरता: ललितशेखरविजयजी म. सा.
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