नितिन आर. उपाध्याय।।
दुनिया के सात सबसे पुराने शहरों में से एक तमिलनाडु का कांचीपुरम। वैसे तो कांची में कोई 125 बड़े मंदिर हैं, जिनका अपना-अपना इतिहास है, लेकिन ऐसा लगता है कि पिछले डेढ़ महीने से इस शहर के सारे रास्ते एक ही मंदिर की ओर मोड़ दिए गए हैं। 1 जुलाई से अब तक करीब 90 लाख लोग इस शहर में आ चुके हैं। इस समय अगर दक्षिण भारत में कहीं आस्था की लहरें हिलोरे ले रही हैं तो वह जगह है कांचीपुरम। कारण भी खास है। 40 साल बाद अत्ति वरदराज की प्रतिमा आनंद सरस सरोवर से निकाली गई है। ये “वन्स इन ए लाइफटाइम” जैसा है। भगवान विष्णु के अवतार अत्ति वरदराज की प्रतिमा सरोवर से हर 40 साल में एक बार निकाली जाती है। 48 दिन तक दर्शन के लिए मंदिर में रखी जाती है। फिर अगले 40 साल के लिए दोबारा सरोवर में रख दी जाती है। अब 2059 में यह प्रतिमा 48 दिनों के लिए फिर निकाली जाएगी।
17 अगस्त की रात इस प्रतिमा को पवित्र सरोवर में जलवास दिया जाएगा। पिछली सदी में प्रतिमा 1939 और 1979 में निकाली गई थी। अंजीर की लकड़ी से बनी यह प्रतिमा 9 फीट ऊंची है। इस साल 28 जून को वैदिक ऋचाओं के गान के साथ प्रतिमा को वेदपाठी पंडितों ने अपनी पीठ पर रखकर बाहर निकाला था। 1 जुलाई से मंदिर में दर्शन करने रोज दो से ढाई लाख लोग आ रहे हैं। जैसे-जैसे भगवान के जलवास का समय निकट आता जा रहा है, श्रद्धालुओं की भीड़ बढ़ती जा रही है।
23 एकड़ क्षेत्र में बना मंदिर
अत्ति वरदराज पेरुमल मंदिर कांची के प्रमुख मंदिरों में से एक है। करीब 23 एकड़ के क्षेत्र में बने इस मंदिर में दो सरोवर सहित कुछ छोटे मंदिर भी हैं। इस मंदिर में करीब 400 पिलर वाला हॉल है। यह तीन मंजिला है। कांची के अंदर आने वाले लगभग सारे रास्तों पर पुलिस तैनात है। ज्यादातर रास्ते बड़े वाहनों के लिए बंद हैं। हजारों की संख्या में जवान जगह-जगह सेवा दे रहे हैं। अत्ति वरदराज के लिए इन लोगों के मन में आस्था इस कदर है कि वे न सिर्फ क्राउड मैनेजमेंट कर रहे हैं, बल्कि यथासंभव लोगों की मदद भी कर रहे हैं। रास्ता और व्यवस्था समझाने से लेकर श्रद्धालुओं को खाना खिलाने और पानी पिलाने जैसा काम भी पुलिस के जवान पूरे जी-जान से कर रहे हैं।
अत्ति वरदराज क्यों 40 साल सरोवर के अंदर रहते हैं?
इसे लेकर पुराणों से लेकर मुगलों तक कई कहानियां हैं। सबसे प्राचीन किंवदंती भगवान ब्रह्मा से जुड़ी है। अत्ति वरदार मंदिर से जुड़े लक्ष्मीनारायण पेरुमल ट्रस्ट के पीटी संतानम ने भास्कर ऐप को बताया कि कांचीपुरम ब्रह्मा जी के यज्ञ की भूमि है। वे एक बार इस जगह यज्ञ करने आए। यज्ञ में पत्नी का साथ होना आवश्यक है, लेकिन उस समय भगवान ब्रह्मा की पत्नी सावित्री मौजूद नहीं थी, तो ब्रह्मा जी ने गायत्री को साथ लेकर यज्ञ की विधि शुरू कर दी। इससे सावित्री क्रोधित हो गईं। उन्होंने वेगवति नाम की नदी का रूप धर लिया, जो आज भी कांची में बहती है। अपने वेग से उन्होंने कांची को तहस-नहस करने की ठानी, लेकिन इस बीच भगवान विष्णु आ गए। उन्होंने अपने शरीर से वेगवती नदी को रोक दिया। उसे रोकने के लिए भगवान भूमि पर दीवार की तरह लेट गए। सावित्री को अपनी गलती का एहसास हुआ। क्रोध शांत हुआ। ब्रह्मा के आदेश पर विश्वकर्मा ने अंजीर की लकड़ियों से भगवान विष्णु की प्रतिमा तैयार की। नाम पड़ा अत्ति वरदराज। अत्ति का अर्थ है अंजीर की लकड़ी, वरदराज यानी हर तरह का वरदान देने वाले।
यज्ञ पूरा हुआ, लेकिन यज्ञ की अग्नि का तेज इतना ज्यादा था कि भगवान विष्णु सह नहीं पा रहे थे। मंदिर के पुजारी को उन्होंने सपने में निर्देश दिया कि प्रतिमा को मंदिर के ही अनंत सरस तालाब में रख दें और पूजा के लिए दूसरी प्रतिमा पत्थर से बनाई जाए। पुजारी ने सवाल किया कि इस प्रतिमा के दर्शन कैसे होंगे। जवाब मिला कि हर 40 साल में एक बार इसे 48 दिन के लिए निकाला जाए। तभी से यह परंपरा शुरू हुई।
एक कहानी मुगलों से भी जुड़ी
कुछ लोगों का मत है कि जब दक्षिण में मुगलों ने आक्रमण किया और धार्मिक स्थलों को नुकसान पहुंचाया, तब इस प्रतिमा को मंदिर के तालाब में छिपा दिया गया था। फिर 40 साल बाद मंदिर के धर्माधिकारी के पुत्रों ने इसे निकाला था। तभी से परंपरा शुरू हुई।
सरोवर का पानी 40 साल में कभी नहीं सूखता
जिस अनंत सरस सरोवर में भगवान अत्ति वरदराज की प्रतिमा रखी जाती है, उसके बारे में भी कई रोचक तथ्य हैं। मंदिर प्रबंधन से जुड़े लोग बताते हैं कि इस तालाब का पानी कभी कम नहीं होता, न ही तालाब 40 साल में कभी सूखता है। प्रतिमा निकालने के लिए ही इसे खाली किया जाता है। तब 48 दिनों तक यह सरोवर सूखा रहता है। इसका पानी इसी सरोवर के पास बने एक और सरोवर में डाल दिया जाता है। श्री संतानम बताते हैं कि 1979 में जब भगवान को जलवास देने के लिए प्रतिमा को सरोवर में रखा गया था तो उस रात इतनी तेज बारिश हुई कि पूरा तालाब बारिश के पानी से भर गया।
प्रतिमा किसी चमत्कार से कम नहीं
अत्ति वरदराज की प्रतिमा लकड़ी की बनी है। यह लगातार पानी में रहती है। फिर भी यह नहीं सड़ती। प्रतिमा के मूल स्वरूप में भी कोई बदलाव नहीं हुआ है। प्रतिमा पर किसी तरह का लेप नहीं किया जाता। जिस तरह निकाला जाता है, वैसे ही फिर रख दिया जाता है। मंदिर प्रबंधन से जुड़े लोगों का कहना है कि जब प्रतिमा बनाई गई होगी, संभवतः तब इसमें ऐसी कोई धातु या वस्तु मिलाई गई होगी, जिसके कारण यह पानी में भी खराब नहीं होती।
वरदराज का क्लाइव नेकलेस
भगवान अत्ति वरदराज के गले में एक हार है, जो अपने इतिहास के लिए जाना जाता है। इस हार को क्लाइव नेकलेस के नाम से जाना जाता है। रॉबर्ट क्लाइव जो 1700 में मद्रास के गवर्नर थे, उन्होंने अरकोट रियासत जीतने के बाद रियासत के खजाने से मिले सबसे कीमती हार को मंदिर को भेंट किया था। कहानी यह है कि उस समय क्लाइव पेट की किसी गंभीर बीमारी से जूझ रहे थे। वे वरदराज मंदिर के पुजारियों द्वारा दिए गए चरणामृत और भोग को खाने के बाद वे ठीक हो गए थे। इसी के बाद उन्होंने यह हार भगवान वरदराज को चढ़ाया था।
सरोवर में 24 फीट का कुंड
भगवान के जलवास के लिए भी सरोवर में स्थान तय है। सरोवर के बीच में 24 फीट का एक कुंड है। इस पर अत्ति वरदराज मंडप बना हुआ है। इसी मंडप में भगवान को जलवास दिया जाता है। यहां भगवान को शयन मुद्रा में रखा जाता है। चूंकि प्रतिमा लकड़ी की बनी है, इस कारण पानी में ऊपर आ सकती है। इसे रोकने के लिए प्रतिमा पर पत्थर से बने सात शेषनाग रखे जाते हैं, जिनका वजन कई किलो का होता है।
31 दिन शयन मुद्रा और 17 दिन खड़ी प्रतिमा के दर्शन
सरोवर से निकालने के बाद प्रतिमा को शुरुआत के 31 दिन शयन मुद्रा में रखा गया। अंतिम 17 दिनों के लिए प्रतिमा को खड़ा किया गया। मंदिर की पूरी पूजा व्यवस्था अयंगर ब्राह्मणों के हाथों में है। 6 परिवार मिलकर यह काम संभालते हैं। अत्ति वरदार के उत्सव के कारण तमिलनाडु और देशभर के अयंगर ब्राह्मणों को इस आयोजन में बुलाया जाता है। सभी अपनी-अपनी क्षमता के मुताबिक मंदिर में सहयोग देते हैं।
17 की रात जलवास
17 अगस्त की रात को भगवान की पूजा के बाद “महानिवेदन” किया जाएगा। महानिवेदन का अर्थ है भगवान को महाभोग लगाया जाएगा। यह भोग सामान्य भोग से कहीं ज्यादा होगा, क्योंकि इसी रात भगवान को फिर पवित्र तालाब में जलवास दिया जाएगा। इस विधि में सिर्फ मुख्य पुजारी और मंदिर के कुछ खास कर्मचारी होते हैं। आम लोगों को इससे दूर रखा जाता है। प्रतिमा को निकालने या फिर जलवास देते समय बैंड नहीं बजाया जाता, पटाखे भी नहीं चलाए जाते। केवल वेदपाठी ब्राह्मण वैदिक ऋचाओं का गान करते हैं। कर्मचारी और पंडित मिलकर प्रतिमा को सरोवर में रखने की विधि पूरी करते हैं। भगवान का सारा शृंगार निकाला जाता है। केवल एक वस्त्र और जनेऊ ही धारण कराई जाती है।
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