-‘सम्बोधि’ के माध्यम से आचार्यश्री ने दिया प्रवृत्ति के प्रयोजन का सम्बोध
– धन का नहीं, धर्म का संग्रह करने का प्रयास करे आदमी
-‘महात्मा महाप्रज्ञ’ का आचार्यश्री ने किया सरसशैली में विवेचन
कुम्बलगोडु, बेंगलुरु (कर्नाटक): अपनी अमृतवाणी से जन-जन के मानस को तृप्ति प्रदान करने वाले जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशमाधिशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, अहिंसा यात्रा के प्रणेता आचार्यश्री महाश्रमणजी ने शुक्रवार को ‘महाश्रमण समवसरण’ में उपस्थित श्रद्धालुओं को ‘सम्बोधि’ के माध्यम से पावन सम्बोध प्रदान करते हुए कहा कि आदमी कोई भी प्रवृत्ति करता है तो उसके पीछे कोई न कोई प्रयोजन अवश्य होता है। किसी भी कार्य के लिए कोई न कोई प्रयोजन अवश्य होता है। आदमी के भी प्रवृत्ति के दो ही प्रयोजन हो सकते हैं-पहला है दुःख की निवृत्ति और दूसरा है सुख की प्राप्ति। कोई आदमी अपने जीवन में दुःख से मुक्त होने के लिए कोई प्रवृत्ति करता है तो कोई आदमी अपने जीवन मंे सुख की प्राप्ति की कामना से प्रवृत्ति करता है। गृहस्थ आदमी व्यापार करता है तो उसके व्यापार का लक्ष्य होता है कि उसके खान-पान, रहन-सहन आदि की सारी व्यवस्था उसे प्राप्त हो सके और उसके लिए उसे दुःख न उठाना पड़े। वह अपने आर्थिक संकट को दूर करने के लिए व्यापार की प्रवृत्ति करता है। यहां भी लोग प्रवचन श्रवण के लिए आते हैं, धर्म की साधना करते हैं उसके पीछे भी प्रयोजन होता है कि कर्म कटे, आत्मा मोक्ष की आगे बढ़े और आत्मा का कल्याण हो सके। आदमी के आगे का जीवन भी अच्छा हो सके।
धर्माराधना करने के पीछे भी प्रयोजन होता है कि इसके माध्यम से दुःखों से मुक्ति की प्राप्ति हो सकती है। परम सुखों की प्राप्ति तथा आत्मा को दुःखों से मुक्त बनाने के लिए धर्माराधना की जाती है। आदमी भोजन करता है ताकि उसी भूख मिट जाए और आदमी को कोई भी कार्य करने की उससे ऊर्जा प्राप्त हो सके। एक साधु भी भोजन करता है तो उसका प्रयोजन होता है कि उसकी भूख भी मिट जाए और उससे प्राप्त होने वाली शक्ति से किसी की पवित्र सेवा, सहायता व परोपकार कर सके, किसी को चित्त समाधि पहुंचा सके। विद्या का अर्जन करने के पीछे भी प्रयोजन होता है कि विद्या का अर्जन कर आदमी स्वावलम्बी बन सके, अच्छा ज्ञान हो सके, उसे प्रतिष्ठा प्राप्त हो सके और वह अच्छा अर्थार्जन भी कर सके। ऐसे सामान्यतया देखा जाए तो बिना प्रयोजन के आदमी कोई भी कार्य नहीं करता है।
भौतिक दृष्टिकोण वाला आदमी भौतिक सुखों की प्राप्ति के लिए तथा दुःखों के विलय के कोई प्रवृत्ति करता है। उसके लिए वह आदमी विभिन्न प्रवृत्तियों के माध्यम से पदार्थों और विषयों का संग्रहण करता है, उससे सुख की अनुभूति करता है और उस वस्तु के विनाश हो जाने के बाद वह पुनः दुःखी भी बन जाता है। मान लिया कोई आदमी बहुत मेहनत के धन कमाया और उसे एकत्रित किया और कोई लुटेरा उसके अर्थ का हरण कर ले गया तो वह आदमी पुनः दुःखी बन सकता है। वह कई प्रकार के सुखों से भी वंचित हो सकता है। इस तरह आदमी भौतिक सुखों की प्राप्ति और उसके माध्यम से दुःखों की निवृत्ति का प्रयास करता है। इसलिए आदमी को ज्यादा भौतिकता की ओर जाने से बचने का प्रयास करना चाहिए। भौतिकता से प्राप्त होने वाले सुख नश्वर होते हैं। इसलिए आदमी को धन का नहीं, धर्म का भी संग्रहण करने का प्रयास करना चाहिए। आदमी को त्याग, प्रत्याख्यान, साधना, आराधना व उपासना आदि के अपनी आत्मा का कल्याण करने का प्रयास करना चाहिए। इसके माध्यम से आत्मा भी कुछ अंशों में मोक्ष मार्ग की ओर अग्रसर हो सकती है, यह आत्मा के लिए कल्याणकारी, लाभप्रद और सुखकर हो सकता है। आचार्यश्री स्वरचित ग्रन्थ ‘महात्मा महाप्रज्ञ’ का सरस वाचन और विस्तृत विवेचन कर श्रद्धालुओं को आचार्यश्री महाप्रज्ञजी के जीवन वृतांत को सुनाया। महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमणजी की पावन सन्निधि में नित्य तपस्याओं के प्रत्याख्यान का तांता लगा हुआ है। अनेकानेक श्रद्धालु अपनी-अपनी तपस्याओं का प्रत्याख्यान कर अपने कर्मों की निर्जरा कर रहे हैं। इस क्रम में शुक्रवार को श्री जीतू सकलेचा ने आचार्यश्री से 28 दिन की तपस्या का प्रत्याख्यान किया। साथ ही अनेकानेक लोगों ने अपनी-अपनी धारणा के अनुसार आचार्यश्री से अपनी-अपनी तपस्याओं का प्रत्याख्यान कर आचार्यश्री से पावन आशीर्वाद प्राप्त किया।