स्टार कास्ट: धर्मेंद्र, सनी देओल, बॉबी देओल
रेटिंग:**
देओल परिवार के फैंस के लिए साल 2011 में रिलीज फिल्म ‘यमला पगला दीवाना’ मनोरंजन का एक बंपर धमाका था। एक ही परिवार के तीन अलग-अलग पीढ़ियों वाले इन कलाकारों को सिनेमाई परदे पर एकसाथ देखना अनूठा अनुभव था। एक नए आइडिये के साथ एक मनोरंजक कहानी भी लेकर आई थी यह फिल्म। कुलजीत रंधावा-बॉबी देओल की केमिस्ट्री को खूब पसंद किया था लोगों ने। फिल्म का संगीत भी जोरदार था। ‘चढ़ा दे रंग’और ‘सौ बार’ जैसे गीतों में अल्फाजों, धुनों की बाजीगरी थी तो ‘यमला पगला दीवाना’ और ‘टिंकू जिया’ में मौजमस्ती का पुट। इसके बाद साल 2013 में ‘यमला पगला दीवाना 2’ आई तो कुछ खास चली नहीं। और अब देओल परिवार लेकर हाजिर है फिल्म ‘यमला पगला दीवाना फिर से’लेकर। तो बात ऐसी है कि इस बार भी मामला कुछ खास जमा नहीं।
फिल्म शुरू होती है इस जानकारी के साथ कि किस तरह भारतीय आयुर्वेद के नुस्खों से तैयार ‘वज्र कवच’ नामक एक औषधि से बादशाह अकबर की नपुंसकता से लेकर महारानी विक्टोरिया के पिंपल्स तक सही हो गए थे। इसके बाद कहानी पहुंचती है आज के पंजाब में, जहां वैद्य पूरन सिंह (सनी देवल) अपने पूर्वजों की धरोहर ‘वज्र कवच’ के जरिये गरीब मरीजों का इलाज करते हैं। इस वज्र कवच पर कई फार्मास्यूटिकल कंपनियों की नजर है। ऐसी ही एक कंपनी का मालिक मार्फतिया (मोहन कपूर) किसी भी कीमत पर यह फॉर्मूला हासिल करना चाहता है। वह पूरन को उसके भाई काला (बॉबी देओल) के जरिये पैसों का लालच देता है पर उसकी दाल नहीं गलती। उल्टा ढाई किलो का हाथ उसका एक दांत जरूर तोड़ देता है। इस बेइज्जती का बदला लेने के लिए अब मार्फतिया एक नई साजिश रचता है। वह धोखे से ‘वज्र कवच’ के फॉर्मूले का पेटेंट करवा लेता है। पूरन और काला किस तरह उसकी इस साजिश को नाकाम करते हैं, यही इस फिल्म की कहानी है।
इस शृंखला की सबसे बड़ी खूबी थी कॉमेडी, एक्शन और रोमांस का तड़का। इनमें से किसी भी मामले में यह फिल्म खरी नहीं उतरती। न हंसाती है, न इसका रोमांस महसूस होता है और न इसके एक्शन में कोई रोमांच या नयापन है। फिल्म में सनी, बॉबी और धर्मेंद्र अपनी छवि के अनुरूप किरदारों में ही नजर आए हैं। सनी देओल ने चलते ट्रक को रोका है, मुक्के मारकर धरती हिलाई है। बॉबी ने अपनी दादाजी के ऐतिहासिक ‘सुनो गांववालों’ सीन को दोहराया है। फर्क सिर्फ इतना है कि बॉबी पानी की टंकी की जगह अपने घर की छत पर खड़े थे और ‘गांववालों’ की जगह ‘मोहल्लेवालों’ को संबोधित कर रहे थे। फिल्म में धर्मेंद्र का किरदार वैसे तो एक वकील का है पर उनकी हरकतें किसी मसखरे से कम नहीं हैं। रंगी हुई मूछों के साथ काल्पनिक अप्सराओं से फ्लर्ट करते धर्मेंद्र कुछ खास नहीं जमते। उन्हें अमिताभ जैसे समकालीन एक्टर्स से सीख लेते हुए कुछ अलग तरह के किरदारों को परदे पर निभाना चाहिए। सनी को यह समझना चाहिए कि अगर वह अपनी एक्शन छवि के मुताबिक ही फिल्में करना चाहते हैं तो भी अब एक्शन का स्वरूप बहुत बदल चुका है। अब हैंडपंप तोड़ने और एक हाथ से चलती बस रोक देने जैसे दृश्यों पर तालियां नहीं मिलतीं, चुटकुले बनते हैं। एक्टिंग के लिहाज से इस बार परिवार के तीनों सदस्यों में बाजी मार ले गए हैं बॉबी देओल। उनका रोल भी सबसे बड़ा है। रेस 3 की सफलता के बाद वह पूरे फॉर्म में नजर आ रहे हैं।
फिल्म में कृति खरबंदा की भी एक विशेष भूमिका है। उनकी मौजूदगी से ग्लैमर आता है, उन्होंने काम भी ठीक किया है। उनके किरदार में थोड़ा सस्पेंस जोड़ा जा सकता था जिससे कहानी थोड़ी और रोचक हो जाती। पर निर्देशक नवनीयत सिंह ने इसे साधारण ही रखना ठीक समझा। असरानी, शत्रुघ्न सिन्हा, सलमान खान जैसे कलाकारों ने भी फिल्म में कैमियो रोल किए हैं। शत्रुघ्न और धर्मेंद्र के कुछ संवाद मजेदार हैं। संगीत में याद रखने जैसा कुछ नहीं है। आजकल के चलन को देखते हुए इसमें भी एक हिट गीत ‘राफ्ता-राफ्ता’ का रीमिक्स रखा गया है।
यमला पगला दीवाना फिर से: नहीं चला देओल परिवार का जादू
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