-‘सम्बोधि’ ग्रन्थाधारित प्रवचनमाला से आचार्यश्री ने बुद्धि की शुद्धि रखने की दी प्रेरणा
-आचार्यश्री के दर्शनार्थ पहुंचे कर्नाटक हाईकोर्ट के जज श्री एन. कुमार व आईपीएस श्री अनुपम अग्रवाल
-दोनों महानुभावों ने आचार्यश्री के प्रवचन श्रवण करने के पश्चात् दी भावाभिव्यक्ति
कुम्बलगोडु, बेंगलुरु (कर्नाटक): मंगलवार को आचार्यश्री तुलसी महाप्रज्ञ चेतना सेवाकेन्द्र में बने ‘महाश्रमण समवसरण’ में उपस्थित श्रद्धालुओं को आचार्यश्री महाश्रमणजी ने पावन प्रतिबोध प्रदान करते हुए कहा कि आध्यात्मिक विचारधारा में आत्मवाद का सिद्धांत होता है तो कर्मवाद का सिद्धांत भी होता है। दोनों सिद्धांत आपस में मानों संबद्ध हैं। जैन दर्शन के कर्मवाद के सिद्धांत में आठ कर्म बताए गए हैं। इनमें ज्ञानावरणीय कर्म और मोहनीय कर्म के विषय में बताया गया है कि ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होता है तो आदमी के भीतर ज्ञान की विशेष चेतना जागृत होती है और वह ज्ञानी, बुद्धिमान होता है और मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से उसे गुस्सा, आवेश, अहंकार, लोभ आदि भी प्रभावित करता है। उसका शिक्षित होना, उसमें बुद्धिमत्ता होना उसके ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम का प्रभाव है तो उसके भीतर व्याप्त गुस्सा, अहंकार, लोभ आदि उसके मोहनीय कर्म की प्रबलता का द्योतक बनता है।
‘सम्बोधि’ ग्रन्थ में बताया गया कि पढ़ा-लिखा, बुद्धिमान, विद्वान और ज्ञानी आदमी में गुस्सा, अहंकार, लोभ आदि विकारों में जा सकता है और दुःख को प्राप्त हो सकता है। जब किसी आदमी के मोहनीय कर्म का क्षयोपशम होता है तो उसका ज्ञान, बुद्धि और विवेक अशुद्धता को प्राप्त हो जाते हैं। आदमी के जीवन के दो पांव बताए गए हैं-एक पांव बौद्धिकता और दूसरा पांव भावात्मकता। यदि इनमें से कोई छोटा और कोई बड़ा हो जाए तो जीवन दुश्वार बन सकता है। जीवन की नौका डगमगा सकती है। पढ़ा-लिखा विद्वान भी मोहनीय कर्म के कारण दुःखी हो सकता है। शिक्षित होने पर भी मोह से आवृत चेतना विकृति उत्पन्न कर सकती है। इसलिए आदमी को अपने जीवन में शिक्षा के विकास के साथ भावात्मक विकास भी करने का प्रयास करना चाहिए। आदमी का मोहनीय कर्म क्षीण हो तो उसकी गति अच्छी हो सकती है और शिक्षित आदमी का जीवन अच्छा बन सकता है। बौद्धिक बल के साथ-साथ भावात्मक बल का भी विकास हो तो आदमी का जीवन अच्छा हो सकता है। बुद्धि के साथ शुद्धि भी होनी आवश्यक होती है। विद्या के अभाव में मूर्खता बढ़ती है तो भावात्मकता के अभाव में मूढ़ता बढ़ती है। विद्या संस्थानों में जाने से मूर्खता दूर हो सकती है और धार्मिक स्थानों पर जाने से मूढ़ता दूर हो सकती है। इसलिए आदमी को बुद्धि के विकास के साथ-साथ उसकी शुद्धि के विकास पर भी ध्यान देने का प्रयास करना चाहिए। आचार्यश्री ने स्वरचित ग्रन्थ ‘महात्मा महाप्रज्ञ’ के माध्यम से आचार्यश्री महाप्रज्ञजी के दीक्षा के बाद प्रारम्भिक वर्षों के कुछ घटना प्रसंगों का रोचक ढंग से वर्णन कर श्रद्धालुओं को मंगल प्रेरणा प्रदान की।
आचार्यश्री की मंगल दर्शन को पहुंचे कर्नाटक हाईकोर्ट के जज श्री एन. कुमार ने आचार्यश्री का मंगल प्रवचन श्रवण करने के पश्चात् अपनी कन्नड़ भाषा में भावपूर्ण विचाराभिव्यक्ति दी। वहीं आई.पी.एस. श्री अनुपम अग्रवाल ने आचार्यश्री के समक्ष अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करते हुए कहा कि आज आपकी सन्निधि में उपस्थित होकर मुझे बहुत आत्मिक शांति की अनुभूति हो रही है। आचार्यश्री की मंगल प्रवचन से जो ज्ञान प्राप्त हुआ, वह आज के समय के लिए बहुत आवश्यक है। आपकी बुद्धि के साथ शुद्धि की प्रेरणा से मैं बहुत प्रभावित हूं। आचार्यश्री ने दोनों महानुभावों को मंगल पाथेय और आशीर्वाद प्रदान किया। चतुर्मास प्रवास व्यवस्था समिति के पदाधिकारियों द्वारा दोनों महानुभावों को स्मृति चिन्ह प्रदान किया गया। श्रीमती मनोहरी देवी बाफना ने 31 की तपस्या का प्रत्याख्यान किया।