‘नक्काश’ एक ऐसी फिल्म है जो देश के बनते-बिगड़ते सामाजिक सौहार्द को परदे पर बखूबी उतारा है। फिल्म में नक्काशी (शिल्पकारी) जैसे पेशे को केंद्रित करके सामाजिक सौहार्द की जो प्रस्तुति की गई है, वह वाकई काबिले तारीफ है। ऐसा लगता है फिल्म सिर्फ और सिर्फ सामाजिक संदेश के लिए ही बनाई गई है। हालांकि देश में कई ऐसे पेशे रहे हैं, जो हिन्दू-मुस्लिम, मंदिर-मस्जिद को एक साथ जोड़ते थे, लेकिन उन पेशों के विलुप्त होने के साथ ही सामाजिक सौहार्द भी विलुप्त होता जा रहा है। पेशों के विलुप्त होने की वजह नई तकनीकें हैं जबकि सौहार्द विलुप्त होने में राजनीति का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इसी को परदे पर उकेरती यह फिल्म लेकर आए हैं निर्देशक जैगम इमाम व निर्माता पवन तिवारी।
कहानी। अल्लारखा (इन्मामुलहक) एक नक्काश (शिल्पकार) है, जो बनारस के मंदिर में शिल्पकारी का काम करता है। उसका यह पेशा पूर्वजों से चला आ रहा है। घर में अपने बेटे के साथ रहता है, पत्नी की मृत्यु हो चुकी है। उसके इस पेशे से कौम के लोगों को काफी ऐतराज है। इसी वजह से उसे समाज के लोगों की काफी नाराजगी झेलनी पड़ती है। यहां तक कि उसके बेटे को मदरसे में दाखिला तक नहीं मिलता है, बावजूद इसके वह इस काम को छोड़ने को तैयार नहीं है। बदले हालात में वह मंदिर में काम के वक्त कपड़े बदलकर व माथे पर चंदन लगाकर जाता है ताकि किसी को यह न लगे कि वह मुस्लिम होकर मंदिर में आता जाता है। अचानक एक दिन उसे मंदिर में जाते वक्त पुलिस पकड़ लेती है और खूब पिटाई करती है। मंदिर के पुजारी जाकर छुड़ाते हैं और बताते हैं कि हम जब खाना खाते हैं तब तो नहीं पता करते कि कौन सा अनाज हिन्दू ने उगाया है और कौन सा अनाज मुस्लिम ने, तो मंदिर में काम करते वक्त यह क्यों देखते हैं। कहानी आगे बढ़ती है अल्लारखा दूसरी शादी करने जाता है इसी दौरान नक्काशी के लिए मंदिर से लाया गया सोना उसका दोस्त असद अपने पिता को हज करवाने के लिए चोरी कर गिरवी रखने जाता है लेकिन पकड़ा जाता है। अल्लारखा के शादी करके वापस लौटने पर घर पर सील लगी होती है, क्योंकि मंदिर से सोना चोरी का आरोप उस पर भी लगा है। पुलिस उसे जेल में बंद कर देती है लेकिन फिर पुजारी जाते हैं और पुलिस को बताते हैं कि आज तक इनके पूर्वजों ने बहुत काम किया है और करोड़ों का सोना होने के बावजूद भी इनकी नीयत नहीं डगमगाई तो थोड़े से सोने पर अल्लारखा की नीयत कैसे फिसल सकती है। वे पुलिस को लेकर जाकर मंदिर के अंदर सबकुछ दिखाते हैं और पुलिस को यकीन दिलाते हैं कि अल्लारखा ने चोरी नहीं की है, इसने मजबूरी में गुनाह कबूला है। कहानी आगे बढ़ती है अल्लारखा का दोस्त समद जेल से रिहा होकर धार्मिक किताब बेचने लगता है, अल्लारखा परिवार के साथ रहते हुए अपने पेशे में लग जाता है और पुजारी के बेटे का विधायकी के लिए टिकट पक्का हो जाता है। इस बीच राजनीति अपना रंग दिखाती है और आगे जो स्थिति बनती है, वह वाकई में वर्तमान दौर को बड़ी बारीकी से इंगित करती है। फिल्म का अंत दर्शकों के समक्ष ऐसा सवाल छोड़ती है, जिस पर हर कोई यह सोचने पर मजबूर होगा कि हम क्या थे और क्या हो गए..?
अभिनयः अल्लारखा के किरदार में इन्मामुलहक ने बढ़िया अभिनय किया है। समद के रूप में शरीब हासमी ने भी किरदार को अच्छे से निभाया है। कुमुद मिश्रा वेदांती (मंदिर के पुजारी) के किरदार में खूब जमे हैं, उनका हाव-भाव, अभिनय सब गजब है तो वेदांतीजी के बेटे मुन्नाभाई के किरदार में पवन तिवारी ने भी गहरी छाप छोड़ी है। बिना कुछ बोले उनके एक्सप्रेशन सबकुछ कह देते हैं। बतौर राजेश शर्मा को अक्सर हम पर्दे पर देखते हैं, पुलिस इंस्पेक्टर के किरदार में इस बार भी वे कमाल कर गए हैं। शबीहा के किरदार में गुल्की जोशी भी ठीक रही हैं। बाकी किरदारों ने भी अभिनय में कोई कोताही नहीं की है।
स्क्रीन प्ले, डायलॉग और निर्देशन बिल्कुल कसा हुआ है। कहीं भी कुछ अतिरिक्त जोड़ने या गढ़ने की कोशिश नहीं की गई है। फिल्म में संगीत की कमी जरूर खलती है। साथ ही पूरी फिल्म गंभीरता लिए रहती है। बीच में थोड़ा सा माहौल हल्का करने की कोशिश की गई है लेकिन वह पर्याप्त नहीं थे। बावजूद इसके ‘नक्काश’ दर्शकों को निराश नहीं करेगी। थिएटर से निकलने के बाद दर्शक अन्य विषयों के बजाए फिल्म पर ही चर्चा करना मुनासिब समझेंगे। हमारा मत है कि यह फिल्म काफी अलग और संदेशभरी है, सो एक बार जरूर देखें।
सुरभि सलोनी की तरफ से 3.5 स्टार।
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फिल्म रिव्यूः नक्काश (3.5 स्टार)
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