आदित्य तिक्कू।।
प्रधानसेवक की इस जीत से लोकतांत्रिक राजनीति में एक इतिहास बन गया है। यह इतिहास है, पूर्ण बहुमत के साथ एक राष्ट्रीय दल का केंद्रीय सत्ता में काबिज होना, केंद्र में क्षेत्रीय दलों के प्रभुत्व में कमी आना और राष्ट्रीय राजनीति में मंडलवादी जातिगत समीकरण का कमजोर होना। भारत के इतिहास में यह पहली बार है, जब किसी गैर-कांग्रेसी सरकार ने केंद्र में दुबारा बहुमत हासिल किया है। तमाम आकलनों, अनुमानों को निर्मूल साबित करते हुए एन डी ए ने दूसरी बार अपने दम पर बहुमत हासिल कर लिया है। हालांकि मतदान पश्चात सर्वेक्षणों में भाजपा और उसके सहयोगी दलों को तीन सौ से चार सौ के बीच सीटें आने के संकेत मिले थे, पर मेरे जैसे कई लोग उन्हें सही नहीं मान रहे थे। इसका आधार सिर्फ यह था कि इस बात पर किसी को विश्वास नहीं हो रहा था कि भाजपा अपना पिछला मत प्रतिशत कायम रख पाएगी। क्योंकि पिछले आम चुनाव में उसे सत्ता-विरोधी लहर का फायदा मिला था। कांग्रेस की अगुआई वाली यूपीए सरकार से लोगों में नाराजगी थी। इस बार वैसी कोई लहर नहीं थी, बल्कि सत्ता के पक्ष में भी कोई लहर नजर नहीं आ रही थी, कम से कम ऐसी केबिन में। नोटबंदी और जीएसटी जैसे फैसलों से सरकार के प्रति लोगों में व्यापक नाराजगी का अनुमान लगाया जा रहा था। फिर विपक्षी दलों ने इस बार कुछ अधिक ताकत के साथ अपने को चुनाव मैदान में उतारा था। क्षेत्रीय दलों से कड़ी चुनौती मानी जा रही थी। इसके अलावा उन राज्यों में भाजपा के नुकसान का अनुमान लगाया जा रहा था, जहां पिछली बार उसने सारी की सारी या फिर अधिकतम सीटों पर जीत हासिल की थी। खासकर उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में बड़े नुकसान के कयास थे। हालांकि यहां हुए नुकसान की कुछ भरपाई पश्चिम बंगाल और ओड़ीशा से होने की उम्मीद की जा रही थी। इन सबके बीच कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों को अच्छा-खासा फायदा मिलने का अनुमान लगाया जा रहा था। मगर नतीजों ने इन तमाम आकलनों पर पानी फेर दिया वह फिर से सिद्ध करदिया पत्रकारिता आलीशान औफिसों या गमछा डाल के टीवी पर नहीं होती है।
भाजपा की यह जीत न सिर्फ इस मायने में ऐतिहासिक है कि उसने दुबारा सत्ता में वापसी की है, बल्कि पहले की अपेक्षा अधिक सीटें हासिल की हैं। जहां उसके नुकसान के अनुमान लगाए जा रहे थे, वहां भी उसने अपनी हैसियत बरकरार रखी है। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के हाल ही संपन्न हुए विधानसभा चुनावों में मिली शिकस्त के बावजूद उसने लोकसभा चुनाव में अपना दबदबा कायम रखा। यही नहीं, कुछ नए राज्यों में अपनी धमाकेदार उपस्थिति बनाई है। पश्चिम बंगाल और ओड़ीशा के अलावा कर्नाटक में वह दमदार पार्टी के रूप में उभरी है। कर्नाटक विधानसभा चुनावों के बाद माना जा रहा था कि लोकसभा चुनावों में भी भाजपा को खासा नुकसान पहुंचेगा, पर ये अनुमान भी निर्मूल साबित हुए। उत्तर प्रदेश में उसके अधिक नुकसान का आकलन था, पर वहां भी उसे बहुत चोट नहीं पहुंची। जबकि वहां सपा और बसपा के गठजोड़ से जातीय समीकरण के चलते भारी उलटफेर का अनुमान था। महाराष्ट्र और गुजरात में भी उसे कोई बड़ी चुनौती नहीं मिल पाई। यानी पूरे देश के स्तर पर जनादेश उसके पक्ष में आया।
भाजपा और सहयोगी दलों के सांसदों को भी इस बार ये बात समझना चाहिए कि उन्होंने नरेंद्र दामोदर दास मोदी को प्रधानमंत्री नहीं बनाया, मोदी ने उन्हें संसद तक पहुंचाया है । ‘अंडरकरंट’ नहीं सच में सुनामी ही थी। इस बार सुनामी बिना शोर के चली जिसे विपक्ष भांप नहीं पाया और शायद भाजपा के भी कुछ नेता तूफ़ान को हवा समझते रहे और खुद को विकल्प का मुग़ालता पाल बैठे।
चुनावी नतीजे आने के साथ ही यह स्पष्ट हो गया कि विपक्ष की अगुआई कर रही कांग्रेस इस बार भी लोकसभा में नेता विपक्ष का पद हासिल नहीं कर सकेगी। भले ही कांग्रेस के खाते में पिछली बार से आठ सीटें अधिक दिख रही हों, लेकिन कुल मिलाकर उसका प्रदर्शन उसकी दयनीय दशा को ही बयान कर रहा है।
सबसे पुरानी और लंबे समय तक केंद्र में शासन करने वाली कांग्रेस की ऐसी दुर्दशा इसलिए ठीक नहीं, क्योंकि लोकतंत्र एक मजबूत विपक्ष की भी मांग करता है और आज के दिन कोई क्षेत्रीय दल इस मांग को पूरा करने में समर्थ नहीं। वह कर भी नहीं सकता, क्योंकि ऐसे दल राष्ट्रीय महत्व के मसलों पर संकीर्ण रवैया अपनाते हैं। इस पर हैरत नहीं कि एक और करारी हार के बाद कांग्रेस में बेचैनी दिख रही है और उसके कई नेता इस्तीफे की पेशकश करने में लगे हुए हैं। ऐसा होना स्वाभाविक है, लेकिन केवल इतने से बात नहीं बनने वाली कि हार के कारणों की समीक्षा होगी। सबको पता है कि समीक्षा के नाम पर लीपापोती ही होती है। कांग्रेस में तो खास तौर पर घूम-फिर कर इसी नतीजे पर पहुंचा जाता है कि पार्टी को गांधी परिवार के नेतृत्व पर पूरा भरोसा है। आखिर कौन नहीं जानता कि 2014 में पराजय के कारणों की खोज के लिए गठित एंटनी समिति की रपट आज तक बाहर नहीं आ सकी? यदि इस बार भी पिछली बार जैसा होता है तो कांग्रेस का भविष्य गंभीर खतरे में होगा। कांग्रेस को एक और करारी हार के बाद खुद में व्यापक बदलाव के लिए कमर कसनी होगी। यह बदलाव आत्ममंथन से ही संभव होगा, न कि दरबारी संस्कृति का परिचय देने से।भाजपा को भी यह समझना चाहिए अगर भक्ति संस्कृति को ऐसे ही प्रोत्साहन मिलता रहा तो भाजपा को कांग्रेस बनने में ७० वर्ष नहीं लगेंगे। विश्व में नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री के रूप में कार्य करेंगे परन्तु देश में प्रधानसेवक के रूप में ….