गुजरात की गांधीनगर लोकसभा सीट से लालकृष्ण आडवाणी के न उतरने के साथ ही उनकी चुनावी राजनीति का अंत हो गया है। यह बीजेपी का भी बीते 30 सालों में ऐसा पहला चुनाव होगा, जब वह लालकृष्ण आडवाणी के बिना मैदान में उतरेगी। पार्टी के पितामह कहे जाने वाले आडवाणी की छत्रछाया से मुक्त होकर चुनाव लड़ना एक तरह से बीजेपी में पीढ़ीगत बदलाव पर आखिरी मुहर है। राम मंदिर आंदोलन से बीजेपी को शून्य से शिखर तक ले जाने वाले आडवाणी ने 1989 में पहला लोकसभा चुनाव नई दिल्ली से लड़ा था और जीते भी। इसके बाद उन्होंने 1991 में गांधीनगर का रुख किया और वहां से संसद पहुंचे।
राजनीतिक शुचिता की मिसाल देते हुए जैन डायरी में नाम आने पर आडवाणी ने 1996 में गांधीनगर सीट से इस्तीफा दे दिया था। इसके बाद 1998 में क्लीन चिट मिलने पर ही वह मैदान में उतरे। इसके बाद वह 1999, 2004, 2009 और 2014 का चुनाव यहीं से जीतते रहे। अब इस सीट पर उनकी जगह अमित शाह लेंगे, जिन्होंने अपने शुरुआती दिनों में इस सीट पर चुनाव प्रबंधन का काम भी संभाला था।
महज 14 साल की उम्र में अविभाजित भारत में आरएसएस से जुड़े आडवाणी को जनसंघ की स्थापना के बाद आरएसएस ने राजनीतिक क्षेत्र में भेजा था। श्याम सुंदर भंडारी के निजी सचिव के तौर पर राजनीति से जुड़ने वाले आडवाणी फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। 1957 में पार्टी के संसदीय
मामलों की जिम्मेदारी मिलने के बाद दिल्ली आने वाले आडवाणी तब से ही केंद्र की राजनीति के स्तंभ रहे।
ऐसे में 1970 से संसदीय राजनीति का हिस्सा रहे लालकृष्ण आडवाणी का चुनावी राजनीति से बाहर होना बीजेपी में एक युग का पटाक्षेप होने जैसा है। 1998 से 2004 तक वाजपेयी सरकार में उपप्रधानमंत्री रहे आडवाणी 2009 में पीएम उम्मीदवार भी रहे थे, लेकिन 2014 में नरेंद्र मोदी को पीएम कैंडिडेट बनाया गया। तब 86 वर्ष के रहे आडवाणी के लिए पहला मौका था, जब वह बीजेपी में ड्राइविंग सीट पर नहीं थे। उसके बाद उन्हें मार्गदर्शक मंडल में भेजा गया और अब वह चुनावी राजनीति से ही बाहर हैं। साफ है कि यह आडवाणी की सक्रिया राजनीति का भी अंत है।
बिना आडवाणी के उतरी बीजेपी
Leave a comment
Leave a comment