चीन ने भारतीय हितों और अंतरराष्ट्रीय जनमत के खिलाफ जाकर पाकिस्तान में पल रहे आतंकी सरगना मसूद अजहर का बचाव करके यही साबित किया कि वह भारत को नीचा दिखाने के लिए किसी भी हद तक जाने और यहां तक कि आतंकवाद की तरफदारी करने को भी तैयार है। उसने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में मसूद अजहर का चौथी बार बचाव करके यही दिखाया कि वह अपने संकीर्ण स्वार्थों के लिए विश्व व्यवस्था को खतरे में भी डाल सकता है। चीन के गैर-जिम्मेदाराना रवैये को देखते हुए इस नतीजे पर पहुंचने के अलावा और कोई उपाय नहीं कि वह भारत के खिलाफ पाकिस्तान का न केवल इस्तेमाल करता रहेगा, बल्कि उसे उकसाता भी रहेगा।
यह चीन की चालबाजी के अलावा और कुछ नहीं कि उसे मसूद अजहर के खिलाफ और सुबूत चाहिए। जो सुबूत दुनिया के अन्य देशों को मान्य हैैं वे अगर चीन को अपर्याप्त दिख रहे तो इसीलिए, क्योंकि वह भारतीय हितों को चोट पहुंचाना चाह रहा है। वह प्रतिस्पर्धा करने के बजाय भारत की राह में रोड़े बिछा रहा है। इसी कारण एक ओर वह आतंकी सरगना के साथ खुल कर खड़े होना पसंद कर रहा और दूसरी ओर परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह यानी एनएसजी में भारत की सदस्यता में बाधक बन रहा है। यह हास्यास्पद है कि चीन को यह साधारण सी बात समझ में नहीं आ रही कि जिस आतंकी सरगना का संगठन संयुक्त राष्ट्र की ओर से प्रतिबंधित है उस पर भी पाबंदी लगना जरूरी है। चीन यह तो चाहता है कि भारत उसके हितों की परवाह करे, लेकिन वह खुद भारतीय हितों को तनिक भी चिंता नहीं कर रहा।
चीन ने वुहान में बनी समझबूझ को जिस तरह ताक पर रख दिया उसके बाद भारत को इस पर नए सिरे से विचार करना ही होगा कि उसके अड़ियल रवैये से कैसे पार पाया जाए? यह सोच-विचार केवल सरकार को ही नहीं, राजनीतिक दलों और आम लोगों को भी करना होगा। इसके लिए कोई दीर्घकालीन रणनीति भी बनानी होगी। यह तब बनेगी जब राजनीतिक दल दलगत हितों से ऊपर उठकर राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता प्रदान करेंगे। दुर्भाग्य से इसका ही अभाव दिख रहा है। समझना कठिन है कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी इस नतीजे पर कैसे पहुंच गए कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चीनी राष्ट्रपति से भयभीत हैैं।
क्या चीनी राष्ट्रपति को भला-बुरा कहने से चीन सही रास्ते पर आ जाएगा? डोकलाम विवाद के समय गुपचुप रूप से चीनी राजदूत से मिलने वाले राहुल को इसका थोड़ा तो ज्ञान होना ही चाहिए कि विदेश नीति और कूटनीति कैसे काम करती है? आखिर यह मोदी सरकार की ही कूटनीति थी कि चीन डोकलाम से पीछे हटने को राजी हुआ। इसी तरह अगर इस बार संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में कहीं अधिक देशों ने मसूद अजहर पर पाबंदी के प्रस्ताव का समर्थन किया तो यह भी भारतीय कूटनीति की कामयाबी ही है। इसमें दोराय नहीं कि चीन ने अमैत्रीपूर्ण व्यवहार किया है, लेकिन आखिर इसका क्या मतलब कि उससे पार पाने को लेकर हमारे राजनीतिक दलों के बीच कलह नजर आए? कूटनीतिक मसलों पर इस कलह से तो चीन और पाकिस्तान को ही फायदा होगा।
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