राफेल सौदे पर एक और कथित सनसनीखेज खुलासा जिस तरह आधा सच बताने और आधा छिपाने के अभियान के तौर पर सामने आया उससे सबसे अधिक चोट मीडिया की विश्वसनीयता को ही पहुंचने वाली है। समझना कठिन है कि राफेल सौदे की प्रक्रिया में प्रधानमंत्री कार्यालय के तथाकथित दखल को साबित करने के फेर में एक अंग्रेजी दैनिक ने क्या सोचकर रक्षा मंत्रालय के एक नोट का अधूरा अंश ही छापा? इस अधूरे अंश को देखने-पढ़ने से अलग तस्वीर उभरती है, लेकिन पूरे हिस्से को पढ़ा जाए तो तस्वीर कुछ और नजर आती है।
अधूरे हिस्से में तत्कालीन रक्षा सचिव की इस आपत्ति का तो जिक्र है कि राफेल सौदे में प्रधानमंत्री कार्यालय फ्रांस सरकार से संपर्क में क्यों है, लेकिन तबके रक्षा मंत्री मनोहर पर्रीकर की ओर से लिखी गई यह टिप्पणी गायब है कि प्रधानमंत्री कार्यालय और फ्रांस के राष्ट्रपति कार्यालय सौदे पर बातचीत नहीं कर रहे, बल्कि उसकी प्रगति की निगरानी कर रहे हैं। साफ है कि जो भी रक्षा मंत्री की टिप्पणी से अवगत नहीं होगा वह यही समझेगा कि रक्षा सचिव को प्रधानमंत्री कार्यालय और फ्रांस के राष्ट्रपति कार्यालय के बीच राफेल सौदे पर हो रही कथित समानांतर बातचीत पर आपत्ति थी।
यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि आधा सच बयान करने वालों की दिलचस्पी केवल यह प्रचारित करने की थी कि रक्षा मंत्रलय को प्रधानमंत्री कार्यालय के कथित हस्तक्षेप से आपत्ति थी। इसी कारण उसने इस आपत्ति के ठीक नीचे रक्षा मंत्री की ओर से लिखी गई टिप्पणी को जानबूझकर स्थान नहीं दिया और वह भी तब जब वह उसी पेज पर थी। ऐसा काम तो वही कर सकता है जिसका मकसद अपनी मर्जी का सच सामने लाना हो।
आम तौर पर इस तरह का काम सोशल मीडिया में किया जाता है। यदि मुख्य धारा का मीडिया भी यही काम करने लगेगा तो फिर वह अपना ही अहित करेगा। वैसे तो ऐसे संवेदनशील मामलों में रक्षा मंत्री का पक्ष भी जानने की कोशिश होती है, लेकिन इस मसले पर ऐसा कुछ नहीं किया गया। इस पर आश्चर्य नहीं कि राफेल सौदे पर आधी-अधूरी सच्चाई सामने आते ही राहुल गांधी उत्साहित हो गए।
उन्होंने नए सिरे से वही सब आरोप दोहराए जो वह न जाने कितने बार उछाल चुके हैं। उनके साथ कुछ अन्य अनेक लोग भी राफेल सौदे को विवादास्पद बताने की कोशिश में लगे हुए हैं। समस्या यह है कि वे यह चाहते हैं कि बिना किसी प्रमाण जनता यह मान ले कि राफेल सौदे में गड़बड़ी हुई है। यह जिद सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले के बावजूद की जा रही है जिसमें उसने राफेल सौदे को सही बताया था।
अगर राहुल गांधी और उनके साथियों को यह लगता है कि सुप्रीम कोर्ट से अधिक विश्वसनीयता उनकी है तो वे ऐसा मानने के लिए स्वतंत्र हैं, लेकिन इससे हकीकत बदलने वाली नहीं है। पता नहीं राफेल सौदे के खिलाफ अभियान कब तक जारी रहेगा, लेकिन बिना किसी प्रमाण इस सौदे को संदिग्ध बताने का अभियान जिस तरह छिड़ा हुआ है उससे तो यही लगता है कि किसी की दिलचस्पी इसमें है कि भारतीय वायु सेना सक्षम न बनने पाए।
राफेल सौदे पर अधूरे सच से मीडिया की विश्वसनीयता पर उठेंगे सवाल
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