एस श्रीनिवासन।।
उत्तरी राज्यों में संभावित नुकसान की भरपाई के लिहाज से तमिलनाडु भाजपा के लिए काफी महत्वपूर्ण राज्य है, लेकिन यहां एक मजबूत गठबंधन खड़ा करने की उसकी कोशिशें लड़खड़ा रही हैं। राज्य की सत्ताधारी पार्टी अन्नाद्रमुक के साथ इसका मधुर रिश्ता रहा है, लेकिन उसके साथ समझौते की बातचीत अब तक इधर-उधर भटकती रही है, क्योंकि अन्नाद्रमुक में इतने सारे खेमे हैं कि भाजपा यही नहीं तय कर पा रही कि आखिर वह किस राह जाए? ई पलानीसामी और ओ पन्नीरसेल्वम के नेतृत्व में सत्ताधारी खेमा भाजपा के साथ गठबंधन के लिए इच्छुक तो है, मगर वह अपने कैडर का सामना करने से घबरा रहा है। बहरहाल, अंतत: इनमें गठजोड़ तो होगा, लेकिन कुछ खामियों के साथ।
इस गठजोड़ की एक वजह तो यही है कि भाजपा अपने दम पर राज्य के मतदाताओं के बड़े हिस्से को रिझाने में नाकाम रही है और तमिलनाडु उसके लिए एक कठिन पहेली बना हुआ है। साल 2014 में जब भाजपा ने लगभग पूरे देश में जीत का परचम लहराया था, तब भी तमिलनाडु में वह कोई छाप छोड़ने में विफल रही थी। विडंबना यह है कि नरेंद्र मोदी को इस स्थिति से दो-चार उस सूरत में होना पड़ा था, जबकि तत्कालीन मुख्यमंत्री जे जयललिता से उनके बहुत अच्छे रिश्ते थे। चूंकि मोदी और जयललिता, दोनों मजबूत शख्सीयत के मालिक रहे, इसलिए उन्होंने अपनी दोस्ती को बरकरार रखते हुए सियासत को पेशेवराना अंदाज में अपनी राह तय करने की छूट दी और वे लोकसभा चुनाव में अपनी अलग हैसियत के साथ उतरे।
जयललिता ने अपने मतदाताओं से ज्यादा से ज्यादा वोट की अपील की, और वोटरों ने भी पूरी उदारता से उनका साथ दिया। तमिलनाडु की 39 में से 37 सीटें अन्नाद्रमुक को मिलीं और एक-एक सीट पर भाजपा और पीएमके के प्रत्याशी कामयाब हुए। जयललिता के बाद भाजपा ने राज्य में अपने लिए एक मौका देखा। जयललिता के पार्थिव शरीर के पास खड़े प्रधानमंत्री मोदी को देखकर ही अंदाज हो गया था कि वह राज्य सरकार के संचालन में अहम भूमिका निभाएंगे। तब उन्हें तत्कालीन मुख्यमंत्री पन्नीरसेल्वम को सांत्वना देते देखा गया। जयललिता की लंबे वक्त से दोस्त रहीं शशिकला ने परदे के पीछे से सरकार चलाने की महत्वाकांक्षा के तहत पन्नीरसेल्वम को मुख्यमंत्री बनवाया था। लेकिन आय से अधिक संपत्ति के मामले में सुप्रीम कोर्ट से सजा मिलने के साथ ही उनका वह सपना ध्वस्त हो गया। उनके भतीजे टीटीवी दिनाकरन का कद भी केंद्र ने कम किया। इसका मकसद यह संदेश देना था कि भाजपा तमिलनाडु की राजनीति को ‘साफ-सुथरा’ करने की इच्छुक है। इस दिशा में पहला कदम था अन्नाद्रमुक को शशिकला और उनके परिवार द्वारा संचालित ‘छद्म मीडिया’ के चंगुल से आजाद कराना। भाजपा को लगा कि मतदाताओं द्वारा इसे सकारात्मक कदम के तौर पर देखा जाएगा।
शुरुआत में मतदाताओं के एक बडे़ वर्ग को यह लगा कि अब अच्छे-अच्छे नतीजे देखने को मिलेंगे। उन्हें उम्मीद थी कि कावेरी और मेगादातु के मामले में केंद्र सरकार तमिलनाडु की मदद करेगी। लेकिन शिक्षा से लेकर किसानों की बेबसी और फिर कुदरती आपदा के मामले में केंद्र सरकार के रवैये से उन्हें निराशा हाथ लगी। स्थानीय नेताओं को आयकर विभाग और प्रवर्तन निदेशालय के छापों से डराया जाता रहा, लेकिन मुख्यमंत्री-उप मुख्यमंत्री ने कोई विरोध नहीं दर्ज कराया। फिर स्थानीय नेताओं, उग्र तमिल राष्ट्रवादियों और टीवी चैनलों ने नई दिल्ली पर हिंदी और हिंदुत्व के भाजपा संस्करण को थोपने का शोर मचाकर लोगों के संशय को और गहरा दिया।
भाजपा नेताओं ने स्थानीय राजनीति को पढ़ने-समझने के लिए काफी मशक्कत की। लेकिन सहयोगियों के प्रति इसका जो रवैया रहा है, इससे इसे बहुत मदद नहीं मिली। पार्टी ने 2014 में पांच सहयोगियों के साथ चुनाव लड़ा था, लेकिन आज उसे नए गठजोड़ के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। भाजपा की शुरुआती कोशिशों के कारण अन्नाद्रमुक के ईपीएस और ओपीएस खेमे में तो एकता हो गई, मगर दिनाकरन गुट को वापस अन्नाद्रमुक में जोड़ने में वह नाकाम रही है। फिल्म स्टार रजनीकांत की सियासत में आमद ने भाजपा को कुछ उम्मीदें जरूर दीं, मगर रजनीकांत ने खुद भगवा पार्टी के साथ सियासी खेल खेलने से इनकार कर दिया। कमल हासन तो खैर हमेशा भाजपा विरोधी खेमे में रहे हैं।
अन्नाद्रमुक में भी भाजपा के साथ गठबंधन के खिलाफ झंडा उठाने वाले पहले व्यक्ति लोकसभा उपाध्यक्ष थंबी दुरई हैं। दुरई की चिंता यह है कि भाजपा के साथ गठजोड़ से वह अपने संसदीय क्षेत्र के अल्पसंख्यक वोट खो सकते हैं। ये वोट लोकसभा में उनकी वापसी के लिहाज से काफी अहम हैं। पार्टी के अन्य खेमों से भी ऐसी आवाजें उभरने लगी हैं। भाजपा तमिलनाडु में अभी एनडीए के सहयोगियों की संभावनाएं ही टटोल रही है, वहीं उसकी चिंता बढ़ाने के लिए द्रमुक, कांग्रेस, वीसीके, एमडीएमके और वाम पार्टियां एकजुट हो गई हैं। ईपीएस-ओपीएस की चिंता यह भी है कि राज्य में यदि विपक्ष मजबूत हुआ, तो आने वाले दिन उनके लिए बेहद मुश्किल हो जाएंगे, क्योंकि विधानसभा में उनका बहुमत मामूली बढ़त पर निर्भर है।
अन्नाद्रमुक की एक परेशानी यह भी है कि भाजपा से गठबंधन न करने की सूरत में यदि एनडीए की केंद्र में वापसी हुई, और यदि द्रमुक का लोकसभा में आंकड़ा अच्छा रहा, तो एनडीए द्रमुक के साथ खड़ा हो सकता है। बीमार करुणानिधि को अस्पताल में देखने पहुंचे प्रधानमंत्री ने संकेत भी दिया था कि कोई अछूत नहीं है। वह करुणानिधि के अंतिम संस्कार में भी मौजूद थे।
इसलिए अब अन्नाद्रमुक को यह तय करना पड़ेगा कि क्या भाजपा से गठजोड़ नुकसान से अधिक फायदेमंद साबित होगा? जहां तक भाजपा की बात है, तो राज्य में अपनी जड़ें जमाने के लिए वह किसी भी द्रविड़ पार्टी के साथ गठबंधन करने को इच्छुक रही है। अब चूंकि द्रमुक ने पहले ही साथी चुन लिया है, इसलिए भाजपा के पास अन्नाद्रमुक के साथ गठजोड़ के सिवा कोई विकल्प नहीं है। लेकिन द्रविड़ पार्टियों को रिझाने की उसकी यह कवायद तमिलनाडु की जनता को नया विकल्प देने के उसके वादे को झुठलाती है। जाहिर है, पार्टी को राज्य में विश्वसनीयता हासिल करने की दरकार है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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