नई दिल्ली:अफगानिस्तान को लेकर अमेरिका और तालिबान के बीच शुरु हुई वार्ता किस तरफ जाएगी, भारत इसको लेकर चिंता में जरुर है लेकिन वह जल्दबाजी में न तो कोई कदम उठाना चाहता है और न ही कोई प्रतिक्रिया देना चाहता है। भारत तालिबान के किसी भी धड़े से न तो अभी संपर्क में है और न ही उनसे सीधा संपर्क रखने की कोशिश होगी।
भारतीय विदेश मंत्रालय मालदीव और श्रीलंका के राजनीतिक उठापटक वाले अनुभव को देखते हुए मानते हैं कि पड़ोसी देशों में मामला जब राजनीतिक उथल-पुथल वाला हो तो संयम बरतने में ही बुद्धिमानी है। हां, जहां तक अपने हितों की रक्षा करने की बात तो है तो भारत सरकार पहले से ज्यादा सतर्क हो चुकी है और किसी भी संभावी हालात से निबटने के लिए लंबी अवधि की रणनीति पर भी काम कर रही है।
इसके तहत सबसे पहले तो बड़ी वैश्विक शक्तियों को साथ लेने की कोशिश की जा रही है। अफगानिस्तान में तालिबान के सत्ता में किसी भी तरीके से प्रवेश के संभावी असर क्या हो सकते हैं इस बारे में रूस के साथ भारत पहले से ही बात कर रहा है। अब भारत ने इस मुद्दे को चीन के साथ उठाने का फैसला किया है। सूत्रों का कहना है कि तालिबान को लेकर पाकिस्तान के अलावा दुनिया का और कोई देश बहुत उत्साहित नहीं है। जहां तक चीन का सवाल है तो उसकी भावी आर्थिक परियोजनाएं अफगानिस्तान से जुड़ी हुई हैं। उसे इस बात का भी डर है कि तालिबान पूर्व की तरह आगे भी दुनिया भर के आतंकियों को प्रशिक्षण करने का अड्डा बनता है तो चीन के उघुर इलाके में इस्लामिक आतंकियों को भी बढ़ावा मिल सकता है। साथ ही अफगानिस्तान की अस्थिरता चीन की बेल्ट एंड रोड इनिसिएटिव (बीआरआइ) के लिए भी बुरी खबर है। ऐसे में भारत को उम्मीद है कि चीन के साथ मिल कर अफगानिस्तान के भविष्य पर एक समान नीति बनाई जा सकती है।
रूस, चीन के अलावा भारत ईरान के साथ भी लगातार संपर्क में है जिसने तालिबान से वार्ता भी शुरु कर दी है। इसके अलावा विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने हाल ही में तीन केंद्रीय एशियाई देशों की यात्रा के दौरान भी अफगानिस्तान के भविष्य को लेकर भारत का पक्ष रक्षा है। ये सारे देश तालिबान की पुन:वापसी को लेकर संशकित है। भारत लगातार अफगानिस्तान सरकार और वहां के अन्य राजनीतिक दलों के साथ संपर्क बनाए हुए है। भारत यह चाहता है कि अमेरिका किसी भी सूरत में अफगानिस्तान में ऐसी अस्थाई सरकार बनाने के लिए तैयार ना हो जिसमें अफगानिस्तान की कोई भूमिका हो।
किसी को भी सत्ता में भागीदारी देने का काम लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत ही होनी चाहिए। यही बात भारत दूसरे देशों को भी समझाने की कोशिश कर रहा है कि वह अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर इसे संभव बनाए। यही बात भारतीय विदेश मंत्री ने भी पिछले महीने अमेरिका के विशेष प्रतिनिधि जाल्मे खलिलजाद के साथ मुलाकात में भी उठाई कि पिछले डेढ़ दशकों में अफगानिस्तान में जो लोकतांत्रिक ढांचा तैयार किया है उसकी सुरक्षा सुनिश्चित होनी चाहिए।
सनद रहे कि अमेरिका अभी तालिबान के साथ बात कर रहा है जिसमें पाकिस्तान की भी अहम भूमिका है क्योंकि तालिबान को पाकिस्तान सेना ही नियंत्रित करती है। अमेरिका व तालिबान में शुरु हुई वार्ता को पाकिस्तान सरकार एक बड़ी कूटनीतिक जीत के तौर पर देखा जा रहा है। भारत की चिंता यह है कि अफगान में तालिबान के आने के बाद पाकिस्तान पूर्व की तरह से उसे भारत विरोधी गतिविधियों का केंद्र बना देगा।
तालिबान से नहीं होगी भारत की कोई सीधी बात
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