- प्रश्नोत्तर के माध्यम से ज्ञानराशि को बढ़ाने को आचार्यश्री ने किया अभिप्रेरित
- आचार्यश्री कालूगणी की जीवनगाथा के श्रवण का लाभ ले रहे श्रद्धालु
08.08.2023, मंगलवार, घोड़बंदर रोड, मुम्बई (महाराष्ट्र)। भगवती सूत्र के नवमें शतक में भगवान पार्श्वनाथ के समय के मुनि गांगेय चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर के पास आते हैं और भगवान महावीर से वार्तालाप के द्वारा अनेक प्रश्न पूछते हैं। उन्होंने भगवान महावीर से प्रश्न किया गया कि जो जीव नरक में पैदा होते हैं, वे वहां स्वतः पैदा होते हैं अथवा कोई शक्ति होती है, जो उन्हें वहां पैदा होने के लिए भेजती है। मुनि गांगेय का यह प्रश्न पुनर्जन्मवाद से संदर्भित है। यह बात इस संदर्भ में है कि आत्मा मरकर किस गति में जाएगी, इसका निर्धारण कोई ऐसी शक्ति के द्वारा होता है और यह प्रक्रिया स्वतः होती है।
भगवान महावीर ने उत्तर प्रदान करते हुए कहा कि जीव मरने के बाद किस गति में जाएगा, यह उसके द्वारा किए गए कर्मों के आधार पर आत्मा स्वतः उस गति में चली जाती है, उसे वहां भेजने के लिए कोई और शक्ति नहीं होती है। जैन दर्शन में कर्म को ही गति प्रदान करने का मुख्य कर्ता माना गया है। जो प्राणी जैसा कर्म करेगा, उसके आधार पर वह ऊर्ध्वगति अथवा अधोगति में चला जाता है। कर्मों के बंध और उदय तथा कर्मों की गुरुता के कारण आत्मा स्वतः नरक अथवा स्वर्ग की ओर गति करती है। देव गति अथवा आगे की गति के लिए शुभ कर्म का उदय और अधोगति अथवा नरक गति की प्राप्ति के अशुभ कर्मों का उदय कारण बनता है। इसलिए आदमी को अपने कर्मों पर ध्यान देना चाहिए। यह सोचें कि हम कैसा कर्म कर रहे हैं। कर्मों में निर्मलता है, सरलता है, सुहृदयता है तो गति अच्छी हो सकती है और छल, कपट, झूठ, हिंसा आदि के कारण अधोगति की प्राप्ति हो सकती है।
आचार्यश्री ने उपस्थित जनता को प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा कि इस प्रसंग से यह भी अच्छी जानकारी होती है कि प्रश्नोत्तर अथवा उचित रूप में शास्त्रार्थ आदि विधा हो तो आदमी की आस्था को प्रगाढ़ बनाने वाली हो सकती है। इस विधा से सही बात की जानकारी हो जाए तो आदमी की दिशा बदल सकती है। जिस प्रकार भगवान महावीर के उत्तर को सुनकर मुनि गांगेय ने चतुर आयाम को छोड़कर भगवान महावीर के पास दीक्षित हो गया। प्रश्नकर्ता और उत्तरप्रदाता दोनों ज्ञानी हों तो चर्चा का अच्छा निष्कर्ष प्राप्त हो सकता है।
आचार्यश्री ने मंगल प्रवचन के उपरान्त ‘कालूयशोविलास’ की आख्यानमाला को आगे बढ़ाते हुए आचार्यश्री कालूगणी की मालवा प्रदेश की यात्रा के दौरान मही नदी को पारकर झखनावद, पेटलावद, इन्दौर में होली चतुर्मास आदि करते हुए पुनः मही नदी को पारकर रतलाम में पधारे और उसके बाद पुनः मेवाड़ क्षेत्र की ओर गति करने को तैयार हुए।
आचार्यश्री के श्रीमुख से नित्य प्रति अपने पूर्वाचार्यों की गाथाओं का वर्णन सुनकर जनता को अत्यंत आनंद की अनुभूति प्राप्त होती है। जिन इतिहासों को आम आदमी भले विस्तार से नहीं जानता, किन्तु आचार्यश्री के सरसशैली में आख्यान का श्रवण कर अपने इतिहास की जानकारी प्राप्त कर सकता है। अंत में अनेक तपस्वियों ने अपनी-अपनी तपस्या का प्रत्याख्यान किया।