- ईड़वा से लगभग 12.5 कि.मी. का विहार कर शांतिदूत पहुंचे नथावड़ा
- विद्यार्थियों और ग्रामीणों ने श्रीमुख से स्वीकार की संकल्पत्रयी
23.11.2022, बुधवार, नथावड़ा, नागौर (राजस्थान)। जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के आद्य आचार्यश्री भिक्षु की जन्मभूमि की ओर गतिमान जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अनुशास्ता, मानवता के मसीहा, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी बुधवार को ईड़वा से प्रातः की मंगल बेला में गतिमान हुए। ईड़वावासियों को अपनी आशीषवृष्टि सराबोर करते हुए आचार्यश्री अगले गंतव्य की ओर बढ़ रहे थे। जगह-जगह खड़े ग्रामीणों को भी आचार्यश्री से मंगल आशीष प्राप्त करने का सुअवसर प्राप्त हुआ। राजस्थान की इस रेतीली भूमि पर ज्ञानगंगा को प्रवाहित करने वाले आचार्यश्री की पदयात्रा मार्ग के दोनों ओर स्थित रेतीले टिलों के मध्य मानों किसी प्रवाहित धवल धारा के समान प्रतीत हो रहा था। आचार्यश्री लगभग 12.5 कि.मी. का विहार कर आचार्यश्री नथावड़ा स्थित राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय में पधारे। जहां विद्यालय के विद्यार्थियों और ग्रामीणों ने आचार्यश्री का भावभीना अभिनंदन किया।
विद्यालय परिसर में आयोजित मुख्य प्रवचन कार्यक्रम में आचार्यश्री महाश्रमणजी के समक्ष विद्यार्थियों व अन्य ग्रामीण श्रद्धालुओं के साथ-साथ गुरुकुलवासी समस्त चारित्रात्माओं की भी उपस्थिति थी। इसका कारण था कि आज चतुर्दशी तिथि का होना था। श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ की परंपरा के अनुसार आज के दिन हाजरी का वाचन आचार्यश्री द्वारा किया जाता है।
इस प्रकार आचार्यश्री ने समुपस्थित सामान्य जनता और चारित्रात्माओं को भी मंगल पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि दुनिया में सुविधा की बात होती है। सुविधा का उपयोग तो किया जा सकता है, किन्तु सुविधावादी मनोवृत्ति न बने इससे बचने का प्रयास करना चाहिए। सुविधावादी मनोवृत्ति विकास में बाधक तत्त्व होती है। साधु को तो विशेष तौर व सुविधावादी मनोवृत्ति से बचने का प्रयास करना चाहिए। साधु के लिए कहा गया है कि साधु में परिषहों अथवा कठिनाइयों को सहन करने की क्षमता होनी चाहिए। परिषहों को सहन करने से एक तो साधु अपने मार्ग से च्युत नहीं हो सकता और दूसरे उसके कर्मों की निर्जरा भी हो सकती है। इसलिए साधु के भीतर तो कठोरता की वृत्ति होनी चाहिए। सुविधावादी मनोवृत्ति कई आवश्यक कार्यों में बाधक बन सकती है। जिसके जीवन में कठोरता हो, सहन करने की क्षमता हो, और सुविधावादी मनोवृत्ति न हो तो वह सुखी बन सकता है।
सुखी बनने के लिए ईर्ष्या, राग, से विरत और संतोष व अभय के भावों को पुष्ट बनाने का प्रयास करना चाहिए। संतोष और अभय भाव के विकास से दुःख समाप्त हो जाएगा दुनिया की कोई भी बाहरी अव्यवस्था उसे मानसिक रूप से दुःखी नहीं बना सकती। इसलिए साधु काम का त्याग करे, स्वयं को तपाने का प्रयास करे तथा द्वेष का छेदन करे तो वह दुःख से मुक्त हो सकता है। प्यार हो तो साधुपन से, संघ प्यारा लगे और फिर गुरु के प्रति स्नेह और समर्पण का भाव हो।
आचार्यश्री ने हाजरी का वाचन करते हुए चारित्रात्माओं को विविध प्रेरणाएं प्रदान करने के साथ-साथ चारित्रात्माओं से अनेक पाठ और मंत्रों को सुना। आचार्यश्री की अनुज्ञा से साध्वी रोशनीप्रभाजी व साध्वी दीक्षाप्रभाजी ने लेखपत्र का उच्चारण किया। तदुपरान्त समस्त चारित्रात्माओं ने अपने स्थान पर खड़े होकर लेखपत्र का उच्चारण किया। आचार्यश्री की प्रेरणा से समुपस्थित विद्यार्थियों, शिक्षकों और अन्य ग्राम्यजनों ने सद्भावना, नैतिकता और नशामुक्ति के संकल्पों को सहर्ष स्वीकार किया। विद्यालय की ओर से अध्यापक श्री कैलाश भारती ने अपनी श्रद्धाभिव्यक्ति दी तथा आचार्यश्री से मंगल आशीर्वाद प्राप्त किया।