वसई। महातपस्वी आचार्य श्री महाश्रमणजी की सुशिष्या साध्वी प्रज्ञाश्रीजी के सान्निध्य में वसई में नौ दिवसीय आयंबिल अनुष्ठान सानंद सम्पन्न हुआ। साध्वीश्री प्रज्ञाश्रीजी ने कहा भगवान महावीर ने कहा है सार को ग्रहण कर अस्सार को छोड़ना। तप एक मंगल है। दूसरे सभी कार्य दिनों के बदले घंटो में हो सकते हैं पर तपस्या दिनों में ही होगी घंटो में नहीं कर सकते। तप के लिए धृतिबल की आवश्यकता है। हड़बड़ी में गडबडी की संभावना है। मानव विवेक व धृतिबल के आधार पर लक्षित मंजिल प्राप्त कर सकता है। तप के साथ ध्यान स्वाध्याय होने पर विशेष विवेक प्राप्त होता है। आ. महाप्रज्ञजी फ़रमाते थे प्रत्येक कार्य ध्यान के साथ हो। अंतर की प्रज्ञा का जागरण आधुनिक शिक्षा प्रणाली से नहीं होगा केवल भीतर जाकर ध्यान लगाने से होगा। जीवन में कठिनाई न हो तो जीवन चमकता नहीं है, जैसे स्वर्ण चोट खाकर ही निखरता है, जीवन में कठिनाई आए तो घबराएँ नहीं। किसी के कहने मात्र से या टोकने मात्र से जीवन को ख़त्म करने का ना सोचें । विवेक व धृति से सामना करना चाहिए। तप के 12 प्रकार हैं उनमें से छः बाह्य व छः आंतरिक। बाह्य के साथ साथ आंतरिक तप करने से ही विवेक और धैर्य बढ़ेगा। साध्वी सरल प्रभाजी ने तेरापंथ में तप के संस्मरणों से सभी को तप की प्रेरणा दी। साध्वी विनयप्रभाजी और प्रतीकप्रभाजी ने गीतिकाओं के माध्यम से सभी को प्रेरित किया। नवरात्र में वसई में लगभग 450 से ऊपर आयंबिल हुए। प्रथम दिन 125 हुए। 2 तारीख़ को 90 हुए।पूरे कार्यक्रम में वसई सभा , महिला मंडल और तेयुप का पूर्ण श्रम और सहयोग रहा।