- भगवती सूत्र में वर्णित कर्मफल के नियमों को आचार्यश्री ने किया वर्णित
- अहिंसा प्रधान हो जीवनशैली : अहिंसा यात्रा प्रणेता आचार्यश्री महाश्रमण
02.10.2022, रविवार, छापर, चूरू (राजस्थान) । नवरात्र के समय में चारों ओर धार्मिक-आध्यात्मिक अनुष्ठानों का आयोजन हो रहा है। देश ही नहीं, विदेशी धरती पर शक्ति की आराधना में लोग तल्लीन हैं। सबकी विधि, परंपरा में भिन्नता भले हो, लेकिन सभी शक्ति की आराधना में तत्पर नजर आ रहे हैं। ऐसे छापर की धरा पर वर्ष 2022 का चतुर्मास कर रहे जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान देदीप्यमान महासूर्य, शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी की मंगल सन्निधि में नवाह्निनक आध्यात्मिक अनुष्ठान का आयोजन हो रहा है। इसके साथ प्रतिदिन मुख्य प्रवचन कार्यक्रम के साथ-साथ अणुव्रत उद्बोधन सप्ताह भी मनाया जा रहा है। रविवार को आचार्यश्री महाश्रमणजी ने अपने मंगल प्रवचन से पूर्व नित्य की भांति उपस्थित श्रद्धालुओं को मंत्र जप का प्रयोग कराया। तदुपरान्त साध्वीप्रमुखाजी ने उपस्थित जनता को उद्बोधित किया।
आचार्यश्री ने समुपस्थित श्रद्धालुओं को भगवती सूत्र के माध्यम मंगल प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा कि भगवान महावीर से प्रश्न किया गया कि जैन दर्शन के अलावा अन्य दार्शनिक कहते हैं कि सभी प्राण, भूत, जीव और सत्व एवंभूत वेदना का वेदन करते हैं। एवंभूत सात नयों में सातवां नय है। एवंभूत नय के अनुसार कोई भी पर्यायवाची शब्द नहीं होता। जिस अवस्था में जो कार्य होता है, उसका ही नाम होता है। जैसे एक साधु को भिक्षु तभी कहा जा सकता है, जब वह भिक्षाटन कर रहा हो। बाद में यदि वह ध्यान में बैठा है तो उसे भिक्षु नहीं कहा जा सकता। शिक्षक तभी तक शिक्षक है, जब तक वह पढ़ाने का कार्य कर रहा है।
वेदना दो प्रकार की बताई गई है-एवंभूत वेदना और अनएवंभूत वेदना। प्राण, भूत, जीव और सत्व एकार्थक शब्द भी हैं और अलग-अलग भी हैं। प्राण द्विन्द्रिय, त्रिन्द्रिय और चतुरेन्द्रिय प्राणियों को, वनस्पतिकाय को भूत पंचेन्द्रिय प्राणी को जीव और शेष चार कार्य अर्थात् पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजसकाय और वायुकाय के जीवों को सत्व कहा जाता है। एवंभूत वेदना का अर्थ है कि जो जैसा कर्म करता है, उसी अनुसार फल भी पाता है। इस संदर्भ में भगवान महावीर ने कहा कि नहीं, ऐसा नहीं होता, कई एवंभूत वेदना का वेदन भी करते हैं और कई अनएवंभूत वेदना का भी वेदन करते हैं। ऐसा कर्मों के संक्रमण से होता है। यानी दोनों प्रकार से प्राण, भूत, जीव और सत्व अपने कर्मों का वेदन करते हैं। हालांकि देखा जाए तो कर्मवाद का मूल सिद्धांत यही कहता है कि जैसी करणी वैसी भरणी। आदमी को कर्मवाद के मूल सिद्धांत को मानते हुए बुरे कार्यों से बचने का प्रयास करना चाहिए।
अहिंसा यात्रा प्रणेता आचार्यश्री महाश्रमणजी ने अणुव्रत उद्बोधन सप्ताह के अंतिम दिन जो अहिंसा दिवस के रूप में समायोजित था। इस संदर्भ में उपस्थित जनता को मंगल प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा कि अहिंसा एक ऐसी शक्ति है, जो प्राणियों को अभय प्रदान करती है। इसलिए तो अहिंसा को माता भी कहा गया है। इस संदर्भ में आचार्यश्री ने ‘जय हे जय जीवनदाता’ गीत का आंशिक संगान भी किया। आचार्यश्री ने आगे कहा कि आदमी की जीवनशैली अहिंसा प्रधान हो तो जीवन अच्छा हो सकता है।
इस दौरान इस दिवस के संदर्भ में दाण्डी मार्च निकालकर आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में उपस्थित विद्यार्थियों को भी आचार्यश्री से प्रेरणा प्राप्त हुई। अणुव्रत समिति-छापर के अध्यक्ष श्री प्रदीप सुराणा, चतुर्मास प्रवास व्यवस्था समिति-छापर के अध्यक्ष श्री माणकचंद नाहटा, अणुव्रत आध्यात्मिक पर्यवेक्षक मुनि मननकुमारजी व अणुव्रत विश्व भारती के उपाध्यक्ष श्री अविनाश नाहर ने आचार्यश्री के समक्ष अपनी भावाभिव्यक्ति दी। अणुव्रत से जुड़ी महिलाओं ने गीत का संगान किया। आचार्यश्री ने बच्चों के जीवन में अणुव्रत का प्रभाव रहने का आशीर्वाद प्रदान किया।