भारतीय संस्कृति में चातुर्मास की परंपरा बहोत प्राचीन है। जैन धर्म में भगवान ॠषभदेव से हीं यह परंपरा चली आ रही है। वर्षाकाल श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, इन चार महिनों मे सर्वत्र हरियाली छा जाती है। इस दौरान अनगिनत कीड़े मकोड़े सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति होती है। नदी नाले वर्षा के कारण पानी से भर जाते है और मार्ग अवरुद्ध हो जाते है।
भगवान माहावीर स्वामी ने साधु साध्वियों के लिये यह चार मास ‘जीवों की रक्षा तथा संयम साधना ‘ के लिये एक स्थान पर रुकने का शास्त्रीय विधान बताया है। बाद में यही कार्यकाल चातुर्मास के रुप में प्रचलित हुआ। चातुर्मास साधु साध्वियों के लिये ज्ञान आराधना, साधना, आत्मरंजन, आत्म चिंतन, आत्म दर्शन, बंधन से मुक्ति का उत्तम समय है।
जैन धर्म संपूर्ण रूप से वैज्ञानिक धर्म है। ‘किसी भी वस्तु, विषय, घटना की क्रमबद्ध जानकारी याने विज्ञान ‘ जों हमें जैन धर्म में मिलतीं है। वर्षा के कारण नदी, नाले, कुआँ आदि जलस्रोतों का पानी घनत्व की दृष्टि से पीने योग्य नहीं रहता। उसे उबाल कर, छान कर हीं पीना चाहिये। जैन धर्म में चतुर्मास में ही नही अपितु हमे हमेशा पानी उबाल कर छान कर पीना चाहिये कहां गया है। इन दिनों हरी पत्तीदार वनस्पतियों पर उसी रंग के सूक्ष्म, स्थूल जीवों की उत्पत्ति होती है। जिस तरह इन दिनों बाहरी वातावरण शीतल होता है उसी तरह हमारे पेट की जठराग्नी भी शीतल हो जाती है। जों इन वनस्पतियों को पचाने में सक्षम नही होती। जैन धर्म में आद्र नक्षत्र के लगते ही आम न खाने का विधान है। इसका कोई धार्मिक लाॅजिक नहीं है। आद्र नक्षत्र लगते ही आम में कीड़े पड जाते है और उसमें अम्ल रस की उत्पत्ति होती है। जों हमारे शरीर के लिये हानिकारक होती है। ‘ शरीर विज्ञान को दृष्टि में रखकर हमें क्या खाना चाहिये ; क्या पीना चाहिये इन के नियम बनाये गये है। जिसे एक धार्मिक जामा पहनाया गया है। ताकि सर्व साधारण मनुष्य इसे फाॅलो कर सके।
इन दिनों में पेट की जठराग्नी शीतल होने की वजह से शरीर को जादा अन्न और पानी की आवश्यकता नहीं होती। इसलिये इस समय जादा से जादा तप, उपवास आदि का प्रयोजन होता है। उपवास हमारे शरीर के अंदर की गंदगी को बाहर कर शरीर को स्वस्थ रखने मे साहाय्यता करता है। एक तरह यह टाॅक्सिन का कार्य करता है। जैन धर्म यह एक प्रक्टिकल धर्म है। व्यक्ति और समाज एक दुसरे से संबंधित है एक दुसरे का विकास परस्पर सहयोग से होता है। हमारे साधु साध्विया चातुर्मास के दौरान लोगों को समाज में परस्पर भाईचारा, सदभावना और आत्मीयता बनाये रखने की प्रेरणा देते है। जिनवानी, प्रवचन, ज्ञान वर्धक जानकारी आदि द्वारा जनमानस की जिज्ञासाओं का निराकरण करते है।
आधुनिक युग में व्यक्ति के जीवन में कुंठाएं, धन लोलुपता और पक्षराग बढ़ गया है। तथा धर्म कम हो गया है। ऐसे में साधु साध्वियां जीवन संतुलन और मर्यादित जीवन जीने की प्रेरणा देते है। जिस से समाज में एक सुरता बनी रहती है। चातुर्मास के दौरान साधु साध्विया समाज के अति निकट होते है और उन्हें समाज में पनप रही मिथ्या धारणायें, कुरीतियां, रूढ़ियाँ आदि का निराकरण करने का अवसर मिलता है। जों उनका कर्तव्य भी है। इस तरह व्यक्ति और समाज को एक सूत्र मे पिरोकर एक स्वस्थ समाज का निर्माण करने का यह एक भागीरथ प्रयत्न भी है।
धार्मिक दृष्टि से साधु साध्वियां चातुर्मास के दौरान जप, तप, स्वाध्याय, दान, परोपकार, सेवा आदि प्रवृत्तियों को समाज में प्राश्रय देने का कार्य करते है। संवर , पौषद, प्रतिकमण आदि क्रियाओं द्वारा सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह इन मुलभुत जैन सिद्धांतो को समाज मे प्रस्थापित करना इनका उद्देश्य है।
इस प्रकार साधु साध्वियों की तरह श्रावको के लिये भी चातुर्मास अत्यंत महत्वपूर्ण है। आप सभी को चातुर्मास की शुभकामनाएँ।
नंदिनी जैन गोलछा वारासिवनी
बालाघाट (म. प्र.)
चातुर्मास
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