टीसीए रंगाचारी।।
फ्रांस के बिआरित्ज में संपन्न जी-7 की बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भागीदारी यह बता रही थी कि दुनिया की प्रमुख शक्तियों के साथ भारत के राजनीतिक, आर्थिक, व्यापारिक और सैन्य सहयोग किस कदर गहरे हुए हैं। डिजिटल बदलाव और जलवायु परिवर्तन की उभरती चुनौतियों सहित तमाम वैश्विक मसलों को सुलझाने में भारत की भूमिका को भी इससे मान्यता मिलती दिखी। फ्रांस के राष्ट्रपति मैक्रोन ने व्यक्तिगत रूप से प्रधानमंत्री मोदी को आमंत्रित किया था, जबकि भारत विकसित देशों के इस गुट का सदस्य नहीं है।
जी-7 का गठन सत्तर के दशक के मध्य में हुआ था और तब से अब तक अच्छा-खासा वक्त बीत चुका है। अब जी-7 सदस्य देशों के पास वह पुराना आर्थिक और राजनीतिक रुतबा नहीं है, जिसके लिए वे कभी जाने जाते थे। चीन ने अमेरिका को छोड़कर जी-7 के सभी सदस्य देशों को पीछे छोड़ दिया है, इसीलिए उसे विकासशील की बजाय विकसित देश कहा जाना चाहिए। लेकिन चीन के पास उदार लोकतांत्रिक साख का अभाव है, जो कि जी-7 में शामिल होने की अहम शर्त है। भारत की गिनती दुनिया की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में होती है, और उदार लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ-साथ परिपक्व होती अर्थव्यवस्था के कारण हम इस गुट के सदस्य बनने की जरूरी योग्यता भी रखते हैं। मगर यहां मौजूद गरीबी और प्रति व्यक्ति आय को देखते हुए इसके विकसित देश का दर्जा हासिल करने की राह अभी कठिन है।
बहरहाल, बिआरित्ज सम्मेलन सदस्य देशों के बीच असहमति और असंतोष के बीच संपन्न हुआ। ट्रेड वार, ईरान, जलवायु परिवर्तन जैसे मसलों पर अमेरिका-यूरोप गठबंधन के आपसी मतभेद दूर नहीं हो पाए। ब्रिटेन और यूरोपीय संघ भी ब्रेग्जिट के सवाल से जूझते रहे। इन असहमतियों के बीच पिछले कनाडा सम्मेलन के बाद की विफलता ने फ्रांस को संयुक्त विज्ञप्ति जारी न करने को मजबूर किया। इसकी बजाय वहां एक साधारण घोषणापत्र जारी किया गया, जिसमें यह कहा गया कि व्यापार, ईरान, यूक्रेन, लीबिया और हांगकांग के बारे में न्यूनतम समझौते पर सहमति बनी है।
भारत की नजर से देखें, तो वैश्विक चुनौतियों पर हमारा नेतृत्व उल्लेखनीय रहा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जलवायु परिवर्तन पर अपनी प्रतिबद्धताएं दोहराईं, प्लास्टिक के उपयोग पर प्रतिबंध लगाने का आह्वान किया और डिजिटल बदलाव पर चर्चा का नेतृत्व किया। हालांकि देश के लोगों की निगाहें अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और मेजबान राष्ट्रपति मैक्रोन जैसे नेताओं के साथ मोदी की द्विपक्षीय बैठकों पर टिकी थीं। बेशक इन मुलाकातों के बाद जो आधिकारिक ब्योरे दिए गए, उनमें तमाम मसलों की चर्चा थी, लेकिन हम उनमें भी तीन सप्ताह पहले अनुच्छेद 370 को निरस्त करने की पृष्ठभूमि में जम्मू-कश्मीर को ही खोजते रहे। प्रमुख विपक्षी दलों की प्रतिक्रिया, घाटी में लगातार हो रहे संघर्ष और जम्मू-कश्मीर एवं पूरे देश में आतंकी हमले की आशंकाओं को देखते हुए इसे समझा भी जा सकता है। पाकिस्तान की तरफ से यद्धोन्माद संबंधी बयानबाजी से ये चिंताएं कहीं गहरी हो जाती हैं।
दरअसल, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने बीते सोमवार को राष्ट्र को संबोधित करते हुए फिर से कहा कि मोदी ने एक ‘बड़ी और ऐतिहासिक गलती’ की और ‘अपना अंतिम कार्ड’ खेला है। यह ‘भारत के अवैध कब्जे से कश्मीरियों को आजादी हासिल करने का एक ऐतिहासिक मौका है’। कश्मीर की सांविधानिक स्थिति में बदलाव की वजह ‘भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नस्लवादी विचारधारा’ है। बकौल इमरान, इस्लामाबाद की कश्मीर नीति ‘निर्णायक’ मोड़ पर है और इसे लेकर ‘अगला कदम उठाने’ का हम एलान करते हैं। इमरान खान ने 27 सितंबर को न्यूयॉर्क में आयोजित संयुक्त राष्ट्र महासभा के सत्र के अपने भाषण में कश्मीरियों की ‘दुर्दशा’ उठाने का वादा भी किया, और हर पाकिस्तानी से आह्वान किया है कि वे ‘भारत के कब्जे वाले कश्मीर के लोगों को भरोसा देने के लिए हर हफ्ते आधा घंटा के लिए अपने घरों, ऑफिसों से बाहर निकलें। इस शुक्रवार को सभी लोग दोपहर 12 से 12.30 बजे के बीच बाहर निकलेंगे’।
दुनिया को ब्लैकमेल करने के लिए वक्त-बेवक्त पाकिस्तान जिस हथियार का इस्तेमाल करता है, वह है भारत-पाकिस्तान जंग। इसके परमाणु युद्ध में बदलने की धमकी वह देता रहता है। हालांकि कश्मीर मसले पर दुनिया के विभिन्न हिस्सों के नेताओं से पाकिस्तानी हुक्मरान द्वारा की गई गुजारिश कोई रंग नहीं ला सकी है। सभी ने द्विपक्षीय रास्ता अपनाने की सलाह दी। 26 अगस्त को इमरान खान ने फिर से दुनिया को यह डर दिखाने की कोशिश की, हालांकि वह समझ रहे थे कि उनके शब्दों का शायद ही असर होगा। उन्होंने भारत को चेतावनी दी कि यदि स्थिति बिगड़ती है, तो पूरी दुनिया पर इसका गहरा असर पड़ेगा, क्योंकि दोनों मुल्कों के पास परमाणु हथियार हैं। वैसे, वह यह समझाने में विफल रहे कि भारत क्यों युद्ध की ओर बढ़ेगा, जबकि पाकिस्तान ही अपनी प्रतिक्रिया में बावला हुआ जा रहा है।
सीनेट में बोलते हुए विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने भी ‘परमाणु जंग’ का इस्तेमाल करते हुए दुनिया से कश्मीर पर तनाव रोकने की गुजारिश की। क्षेत्रीय शांति और सुरक्षा के साथ खिलवाड़ करने की तोहमत भारत पर लगाते हुए उन्होंने कहा कि पाकिस्तान तनाव को बढ़ाना नहीं चाहता और टकराव खत्म करने के लिए वह अब भी तैयार है। इस पृष्ठभूमि में जी-7 के नतीजे हमें आश्वस्त करते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी इस मसले में अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप या किसी अन्य के हस्तक्षेप संबंधी प्रयासों को रोकने में सफल रहे। ट्रंप ने अब तक तीन बार मध्यस्थता की पेशकश की है, जो निश्चित रूप से अफगानिस्तान से बाहर निकलने की अमेरिकी योजनाओं में पाकिस्तान को अधिकाधिक मदद करने के प्रति उत्तरदायी बनाने के लिए किया गया है।
फिर भी, भारत-अमेरिकी रिश्ते में यह मसला एक अड़चन जरूर है। हालांकि यह संतोष की बात है कि ट्रंप ने प्रधानमंत्री मोदी के साथ बैठक के बाद कहा कि ‘हमने पिछली रात कश्मीर मसले पर बात की, और प्रधानमंत्री को वास्तव में लगता है कि स्थिति उनके नियंत्रण में है’। यह नहीं भूलना चाहिए कि जम्मू-कश्मीर का असली मुद्दा वही है, जो 1956 के अपने संविधान में जम्मू-कश्मीर के लोगों ने यह सुनिश्चित किया था कि सूबा भारत का अभिन्न अंग है। पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर को जोड़कर अब इसे हकीकत में बदलने का समय है।
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