मुंबई। आचार्य रविशेखरसूरीश्वरजी म. सा. की निश्रा में नेमानी वाड़ी के प्रांगण में आज ललितशेखरविजयजी म. सा. ने ‘चौथी शरण धर्म की’ विषय पर प्रवचन दिया।
सभी जीव स्वार्थी हैं, साधन और संबंध स्वार्थ से भरा हुआ हैं। 2 प्रकार की दया होती हैं, द्रव्य दया मतलब दुखी जीवों के प्रति दया और भाव दया मतलब दूसरे जीव कब धर्म को प्राप्त करेंगे ऐसी दया। मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ ये 4 तरह की भावना होती हैं। मैत्री मतलब मित्र जहाज जैसा होना चाहिए जो खुद भी तरे और दूसरों को भी तारे, प्रमोद मतलब गुणी व्यक्ति या किसी की तरक्की को देखकर ईर्ष्या नहीं करना बल्कि खुश होना, कारुण्य मतलब कर्मों के वश दुखी जीवों की करुणा भाव से दुख दूर करने की भावना होना, करुणा भाव नहीं तो धर्म नहीं टिकता, सूखे और कठोर हृदय में नहीं बल्कि कोमल हृदय में धर्म पनपता हैं, माध्यस्थ मतलब पापी के प्रति कल्याणकारी भावना रखना।
धर्म सुख का मूल और पाप दुख का मूल होता हैं। धर्म को मजबूत बनाओ, मन में धर्म नहीं होना चाहिए मतलब परिवार, संपत्ति, आदि के बाद अंतिम में धर्म नहीं होना चाहिए बल्कि धर्म में मन होना चाहिए मतलब धर्म सर्वोपरि होना चाहिए, धर्म ही सबकुछ होना चाहिए।
किशन सिंघवी और कुणाल शाह के अनुसार आज प्रवचं पश्चात साधारण फंड के मुख्य लाभार्थियों का बहुमान किया गया और ‘ऋषभ महा-विद्या तप’ के अठारवें दिन के एकासणे की व्यवस्था भी बहुत अच्छे से हुई। इन मौकों पर ठाकुरद्वार संघ के पदाधिकारी और समर्पण ग्रुप के कार्यकर्ताओं के अलावा सैकड़ों श्रावक-श्राविकाएं मौजूद रहे।
प्रमोद मतलब किसी की तरक्की को देखकर ईर्ष्या नहीं करना बल्कि खुश होना: पन्यास ललितशेखरविजयजी महाराज
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