- एक भाषा से अनुवाद और भाषा की जानकारी में लगने वाले समय की होती बचत
- आचार्यश्री ने भगवती सूत्र के माध्यम से भाषाओं का किया वर्णन
25.09.2022, रविवार, छापर, चूरू (राजस्थान)। जन-जन को सद्भावना, शांति का सन्मार्ग दिखाने वाले, लोगों के मानसिक ताप को अपनी अमृतमयी वाणी से अभिसिंचन प्रदान करने वाले, जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशमाधिशास्ता, अहिंसा यात्रा प्रणेता, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी छापर की धरा से चतुर्मास के दौरान भगवती सूत्र आगम के आधार पर निरंतर मंगल पाथेय प्रदान कर रहे हैं। आचार्यश्री की पावन प्रेरणा लोगों के जीवन को नई दिशा प्रदान करने वाली होती है। इसलिए आचार्यश्री के आगमन से मानों इस बार छापर में चार महीने का एक आध्यात्मिक त्योहार-सा आ गया हो। प्रतिदिनि हजारों की संख्या में पहुंचने वाले श्रद्धालु आचार्यश्री की मंगलवाणी श्रवण का लाभ प्राप्त कर रहे हैं।
रविवार को चतुर्मास प्रवास स्थल परिसर में बने प्रवचन पंडाल में समुपस्थित जनता को युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने भगवती सूत्र आगम के माध्यम से मंगल प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा कि भगवान महावीर से प्रश्न किया गया कि देव किस भाषा में बोलते हैं? और कौन भाषा की बोली विशिष्ट होती है? उत्तर दिया गया कि देवता अर्धमागधी भाषा में बोलते हैं और वह अर्धमागधी भाषा बोली जाती हुई विशिष्ट होती है।
इस भाषा जगत में अनेक भाषाएं हैं। संस्कृत, प्राकृत, अंग्रेजी तथा अनेक प्रान्तीय भाषाएं व विदेशी भाषाएं भी चलती हैं। यह एक भाषा जगत है। मेरे मन में एक बात आती है कि दुनिया में इतनी भाषाएं क्यों? इतनी भाषाओं की दुनिया को क्या जरूरत है। इतनी भाषाएं होने से जटिलता भी हो गई है। अनुवाद क्यों करना पड़ता है? अनेक भाषाओं के कारण अनुवाद करना पड़ता है। अगर दुनिया में कोई भी एक ही भाषा होती तो अनुवाद करने की आवश्यकता ही नहीं होती, और अनेक भाषाओं को सीखने में लगने वाला समय भी बच जाता। जो समय भाषा को सीखने में लगता, उसके बदले वह समय विषय को पढ़ने में लगता। इससे कितना समय बच जाता। विद्यार्थी विद्या संस्थानों में संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी आदि-आदि कितनी भाषाओं को पढ़ते हैं। वे लोग इसे पढ़ने में कितना परिश्रम लगाते हैं। यदि कोई एक भाषा होती तो एक भाषा को पढ़ लेने के बाद केवल अनेक विषयों को पढ़ा जा सकता है और अनेक भाषाओं के ज्ञान में लगने वाले समय से बचा जा सकता था। मूल रूप से ज्ञान को बढ़ाने का प्रयास हो सकता है, भाषा तो मात्र एक माध्यम है। भाषा उसे जानने और प्रस्तुत का एक माध्यम है। जैन आगमों की मूल भाषा अर्धमागधी अथवा प्राकृत में है। आम जनता तो इसे नहीं समझ पाती। अन्य लोग समझ ही नहीं पाते। लोगों के नहीं समझने के कारण अनुवाद की आवश्यकता होती है। लेखक-वक्ता के अभिप्राय को जानने के लिए भाषा के ज्ञान के साथ-साथ सारस्वत साधना भी होती है तो अनुवादक लेखक के मूल अभिप्राय को समझ सकता है। अनुवाद करने वाले को जिसका अनुवाद कर रहा है उस भाषा का और जिस भाषा में अनुवाद कर रहा है, दोनों भाषाओं की जानकारी रखने के साथ-साथ सारस्वत साधना होती है तो लेखक के मूल अर्थ को जाना जा सकता है।
भारत का सौभाग्य है कि विभिन्न भाषाओं में ग्रन्थ प्राप्त होते हैं। ये ग्रन्थ उपयोगी और प्रेरणादायी बन सकते हैं और इनसे आत्मा का कल्याण भी हो सकता है। आचार्यश्री के मंगल प्रवचन से पूर्व साध्वीप्रमुखाजी ने भी जनता को उद्बोधित किया। कार्यक्रम के अंत में जैन विश्वभारती की ओर से आचार्यश्री महाप्रज्ञजी की एक कृति ‘अनवेल योर ग्रेटनेस’ आचार्यश्री के समक्ष लोकार्पित की गई। इस संदर्भ में जैन विश्व भारती मान्य विश्वविद्यालय की पूर्व वाइस चांसलर श्रीमती सुधामयी रघुनाथन, साध्वीप्रमुखाजी व श्री रघुनाथन ने भी अपनी विचाराभिव्यक्ति दी। आचार्यश्री ने इस संदर्भ में पावन प्रेरणा प्रदान की। अणुव्रत समिति-छापर द्वारा आगामी अणुव्रत सप्ताह दिवस के बैनर का लोकार्पण आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में किया और पावन आशीर्वाद प्राप्त किया।